समय का पहिया चलता है, दिन ढलता है, रात आती है…

समय का पहिया चलता है, दिन ढलता है, रात आती है…

Ghibli-style illustration inspired by Shabbir Khan’s life and writings

कुछ गीत केवल धुन नहीं होते,
वे समय का आईना बन जाते हैं।
वे हमारे भीतर छिपी यादों,
अधूरे सपनों और बीते रिश्तों को
आवाज़ दे जाते हैं।

आज भी याद है—

भूतनाथ फ़िल्म का वह गीत—
“समय का पहिया चलता है, दिन ढलता है, रात आती है…”
जिसने मेरे बड़े भाई की आँखों में आँसू ला दिए थे।
दादी वही बोल गुनगुनाते हुए
मानो समय की गहराइयों में डूब गई थीं।
उनकी आँखों में अधूरे सपनों की तड़प थी,
मिट चुकी मोहब्बत की कसक थी।

हाँ, दुख जीवन का हिस्सा है।
धन की चकाचौंध में वे कुछ हद तक दब जाते हैं,
पर जब सामने आते हैं—
तो यही समय हमें अपनी सच्चाई का आईना दिखा देता है।

गौतम बुद्ध की एक प्राचीन कथा याद आती है—
सिद्धार्थ को सुख के महलों में पाला गया था,
पर एक वृद्ध के काँपते हाथ और झुर्रियों भरे चेहरे ने
उनके सामने जीवन का नंगा सच खोल दिया था।

बशीर बद्र जी का एक शेर आज भी
दिल के भीतर से आवाज़ देता है—

“ख़्वाहिशों के बोझ में बशर, तू क्या-क्या कर रहा है,
इतना तो जीना भी नहीं, जितना तू मर रहा है।”

और सचमुच—
जब समय का पहिया तेज़ घूमता है,
तो लगता है—
इन अंतहीन ख़्वाहिशों के पीछे भागकर
आख़िर हासिल क्या होगा?
सब कुछ तो अंत में मिट्टी में मिल जाना है।

आज एक वीडियो ने मेरा मन झकझोर दिया।
एक व्यक्ति लोगों से कह रहा था—
“बच्चे पैदा मत करो।”
उसका तर्क था—
दुनिया दुखों, बीमारियों और उलझनों से भरी हुई है।
उसकी आवाज़ में एक अजीब-सा सुकून था,
जैसे वह मेरे मन की गहरी बात कह गया हो।

उसका मुख्य तर्क यह था कि अगर हम बच्चे पैदा नहीं कर रहे हैं,
तो एक तरह से उन्हें दुनिया के दुखों और मुश्किलों से ही बचा रहे हैं।

मैंने एक बार लिखा था—
ईश्वर पर दोष मढ़ना उचित नहीं।
सृष्टि उन्होंने रची,
पर आबादी बढ़ाना मनुष्य का निर्णय है।
अगर कुछ समय तक
संतानोत्पत्ति रोक दी जाए,
तो मानवजाति का अस्तित्व समाप्त किया जा सकता है।

हाँ, यह सच है—
बच्चे न पैदा कर हम उन्हें दुखों से बचा सकते हैं।
लेकिन समाज!
वह तो तुरंत ताने देगा—

“शादी करोगे तो बच्चे क्यों नहीं?
और अगर बच्चे ही न हुए,
तो तुम्हारी देखभाल कौन करेगा?
तुम्हारी अगली पीढ़ी कौन संभालेगा?
अगर लोग बच्चे ही नहीं पैदा करेंगे,
तो यह दुनिया कैसे चलेगी?”

देखिए—
कैसे लोग भ्रमजाल में जी रहे हैं।
कुछ सिर्फ़ समाज के डर से,
और कुछ बुढ़ापे में सहारे की चाह में
बच्चे पैदा कर रहे हैं।

कभी-कभी लगता है—
इस ज़माने में एक अलग सी राय रखना ही बुरा है,
क्योंकि अगर आप भी कुछ इस तरह सोचते हैं कि
हमें बच्चे पैदा नहीं करने चाहिए—

तो यकीन मानिए, आपको लोगों का वही बेवकूफ़ी भरा जवाब ही मिलेगा—
“अरे, ऐसे तो दुनिया ही ख़त्म हो जाएगी!”
कुछ जो बच्चे पैदा कर चुके होंगे, वे कहेंगे—
“जब बच्चे पैदा नहीं करेंगे, तो समाज क्या कहेगा?”

दरअसल, कुछ लोग दुनिया में इस तरह व्यस्त रहते हैं कि
किसी नई बात को ठीक से समझ ही नहीं पाते।

वे यह भी नहीं समझते कि
ज़रूरी नहीं कि यह बात मानी ही जाए,
पर कम-से-कम समझी तो जाए—
क्योंकि समझ से ही बदलाव शुरू होता है।

और अगर आप समझेंगे, तो कम से कम यह जरूर मानेंगे कि—
किसी को भी तब तक बच्चे पैदा करने का अधिकार नहीं,
जब तक वह उन्हें खुश रखने योग्य न बन जाए।

अगर हम इस योग्य हैं कि उन्हें खुश रख सकें,
उन पर दबाव न डालें,
और उनके लिए ऐसा माहौल बना सकें
कि वे ज़िंदगी सुकून से जी पाएं—
तो ही बच्चे पैदा करें।

और खैर—
समाज से डर तो किसे नहीं लगता!
मुझे भी लगता है,
शायद इसलिए मैं भी कभी
उसी भीड़ का हिस्सा बन जाऊँ।

दुनिया के लगभग सभी धर्म कहते हैं—

“संतान को जन्म दो,
उन्हें धर्म का मार्ग दिखाओ,
आध्यात्मिकता की राह अपनाओ,
जीवन की हर चुनौती को साहस और धैर्य से गले लगाओ।
और फिर, तुम्हारे कर्म ही तुम्हारा अगला पड़ाव तय करेंगे।”

यानि—
अगर कर्म अच्छे हुए तो स्वर्ग या सुखदायी जीवन,
और अगर कर्म बुरे हुए तो नरक या कष्टदायी जीवन।

पर मिर्ज़ा ग़ालिब जी का एक शेर ऐसा है,
जो मानो हर तर्क को एक ही झटके में धराशायी कर देता है—

ग़ालिब का शेर:

“न था कुछ तो ख़ुदा था,
कुछ न होता तो ख़ुदा होता।
डुबोया मुझको होने ने,
न होता मैं तो क्या होता।”

इस शेर को दो हिस्सों में बांटा जा सकता है—

ईश्वर का दृष्टिकोण:
“न था कुछ तो ख़ुदा था”—जब संसार और मनुष्य कुछ भी नहीं थे, तब भी ईश्वर था।
“कुछ न होता तो ख़ुदा होता”—यदि संसार, जीवन, या प्राणी कुछ भी न होते, तब भी ईश्वर अपने अस्तित्व में मौजूद रहता।

मनुष्य का दृष्टिकोण:
“डुबोया मुझको होने ने”—मनुष्य के जन्म लेना ही उसके लिए दुःख, उलझन और जिम्मेदारियों का कारण बनता है।
“न होता मैं तो क्या होता”—यदि मनुष्य पैदा ही न होता, तो उसके लिए कुछ भी न होता।
न दिल, न दिमाग, न सोच, न महसूस, न अफ़सोस, न दुख।

ग़ालिब की आवाज़ गूँजती है—
मेरा होना ही मेरी सबसे बड़ी उलझन है।
अगर मैं न होता,
तो न दुख का बोझ होता,
और न सुख पाने की चाह होती।

कभी-कभी मन पूछता है—
हमें इस दुनिया में क्यों लाया गया?
दुख सहने के लिए?
अगर यह दुनिया ही समाप्त हो जाए,
तो क्या बिगड़ेगा?
कुछ भी नहीं—
दुख समाप्त, न्यायपूर्ण।

क्या ईश्वर ने हमें बनाकर भूल की?
क्योंकि न होने पर—
न पाने की ख़ुशी होती,
न खोने का ग़म।

धर्म कहता है—
“ईश्वर के अनुसार जियोगे तो स्वर्ग मिलेगा।”

पर सोचने वाली बात है—
अगर मनुष्य ने जन्म ही न लिया होता,
तो स्वर्ग न मिलने का उसे अफ़सोस भी न होता।

बस शून्य।
इसके अलावा कुछ भी न होता।

फिर किस लिहाज़ से,
स्वर्ग की ललक देकर
उसे इस दुनिया के दुखों में धकेल दिया गया?

ये तो वही बात हो गई—
पहले बनाओ, फिर सताओ!
करे कोई, भरे कोई…

अमिताभ बच्चन जी कई मंचों पर बताते आए हैं—

एक रात, गुस्से से भरे
वे पिता के पास गए और चिल्लाए—
“आपने मुझे पैदा क्यों किया?”

पिता ने चुपचाप देखा,
कुछ न बोले।
सिर्फ़ घड़ी की टिक-टिक,
और मेरी भारी साँसें।

सुबह पिता आए,
कागज़ थमाया।
उस पर एक कविता लिखी थी—

“ज़िंदगी और ज़माने की कशमकश से
घबराकर मेरे लड़के मुझसे पूछते हैं—
‘हमें पैदा क्यों किया था?’

और मेरे पास इसके सिवा कोई जवाब नहीं है
कि मेरे बाप ने भी मुझसे बिना पूछे
मुझे पैदा किया था,
और मेरे बाप से बिना पूछे उनके बाप ने उन्हें,
और मेरे बाबा से बिना पूछे उनके बाप ने उन्हें।

ज़िंदगी और ज़माने की कशमकश
पहले भी थी,
अब भी है— शायद ज़्यादा,
आगे भी होगी— शायद और ज़्यादा।

तुम ही नई लीक धरना,
अपने बेटों से पूछकर उन्हें पैदा करना!”

⏳ समय कहता है—
जो प्रश्नों से डरते हैं,
वे जीवन के रहस्यों से अनजान रहते हैं।
प्रश्न ही वह दीपक है,
जो अँधेरे को अर्थ में बदल देता है।