तीन दोस्त, तेज धूप और खट्टी-मीठी यादों से भरा एक रोमांचक सफ़र

तीन दोस्त, तेज धूप और खट्टी-मीठी यादों से भरा एक रोमांचक सफ़र

Ghibli-style illustration inspired by Shabbir Khan’s life and writings

ये उन दिनों की बात है, जब मैं टीनएज में था और डिस्कवरी चैनल पर आने वाला हॉरर शो ‘ए हॉण्टिंग’ बड़े शौक से देखा करता था। हमेशा की तरह गर्मियों की छुट्टियों में मेरी बुआओं के दो लड़के अपनी छुट्टियाँ बिताने हमारे घर डबरा आए हुए थे। एक दिन हम सब एक आम दिन की तरह अपने कमरे में थे, तभी मैंने उस शो के एक खास एपिसोड का ज़िक्र छेड़ा—और पता यह चला कि उन दोनों में से एक को भी यह शो पसंद था, और उसने भी ठीक वही एपिसोड देख रखा था।

उस एपिसोड में दिखाया गया था कि अमेरिका के एक शहर में कुछ टीनएजर्स रात को एक कमरे में बैठे कंप्यूटर पर अपने ही शहर के एक हॉन्टेड कब्रिस्तान के बारे में वेबसाइटों पर लिखे लोगों के अनुभव पढ़ रहे थे। लोगों का मानना था कि वहाँ उनके साथ कई अजीब-अजीब, असाधारण घटनाएँ हुई थीं, जो बेहद डरावनी थीं।

और जैसे हर टीनएज ग्रुप में एक अजीब-सी हिम्मत होती है, वैसी ही हिम्मत उस ग्रुप में भी थी। उन्होंने ठान लिया कि सच क्या है, यह खुद जाकर देखेंगे।

एक रात, हिम्मत, जिज्ञासा और थोड़ा-सा पागलपन लेकर वे लोग उस कब्रिस्तान पहुँच गए… और वहाँ उनके साथ वही सब हुआ—जिन कहानियों को वे अब तक सिर्फ़ डिजिटल दुनिया की अफ़वाहें समझ रहे थे।

जैसे ही दोस्तों का वह ग्रुप कब्रिस्तान के अंदर कदम रखता है, अचानक तेज़ हवा चलने लगती है और पेड़-पौधे हिलने लगते हैं, मानो किसी ने चेतावनी दे दी हो।

वो ग्रुप भी अजीब था—हर तरह के लोग शामिल थे: कोई बहादुर, कोई मज़ाकिया, कोई डरपोक, और एक ऐसा, जो हर चीज़ को वैज्ञानिक जिज्ञासा से देखता था।

इसके बाद दूसरी डरावनी घटना यह हुई कि उनमें से एक दोस्त अचानक ज़मीन पर गिर पड़ा। उसे ऐसा लगा जैसे वह किसी इंसानी हाथ से टकराकर गिरा हो, पर वहाँ उसे ऐसा कुछ दिखा ही नहीं। और इसी बीच, जैसे ही उसकी नज़र एक कब्र के शिलालेख पर गई, उसने पाया कि उस पर लिखे नाम बदलने लगे थे। उसने अपनी आँखें मलकर दोबारा देखा, तो भी वही पाया—कि नाम सच में बदल रहे थे।
यह ठीक वही घटना थी, जिसका ज़िक्र किसी शख्स ने वेबसाइट पर किया था।

इस घटना के बाद वह इतना डर गया कि उसके चेहरे का रंग उड़ गया—और उसी एक घटना ने उसे इतना डरा दिया कि वह तुरंत कब्रिस्तान से भागकर कार में जाकर बैठ गया।

बाकी लोग आगे बढ़ते रहे, और कुछ देर बाद उन्हें दूर बच्चों का एक समूह दिखाई दिया, जो एक-दूसरे का हाथ पकड़े खड़ा था—यह भी उन्हीं घटनाओं में से था, जिनका ज़िक्र किसी अन्य शख्स ने वेबसाइट पर किया था।

उन्होंने एक कब्र के बारे में यह भी पढ़ा था कि अगर उस कब्र को लगातार देखा जाए, तो वह बीच से फटती हुई दिखाई देती है—यानी बीच में दरार फैलती हुई दिखती है।
अंत में, सच जानने के लिए आगे जब वे उसी कब्र तक पहुँचे और उसे घूरकर देखने लगे, तो उनके साथ भी वही हुआ—जो वहाँ कई लोगों ने अनुभव किया था।

हर घटना के बाद उस ग्रुप का एक-एक सदस्य डरकर कब्रिस्तान से बाहर भागता गया। हर किसी की हिम्मत की अपनी एक सीमा थी—और वह सीमा वह कब्रिस्तान एक-एक कर तोड़ता जा रहा था।
उस कब्रिस्तान की घटनाएँ कोई भूतिया घटनाएँ नहीं, बल्कि किसी बड़ी शैतानी ताकत जैसी प्रतीत होती थीं।

बाकी बचे लोग आगे बढ़ते रहे। उनमें से एक चश्मिश लड़का था—बेहद जिज्ञासु, बेहद विचित्र; जैसे उसके लिए डर भी एक रिसर्च का हिस्सा हो। उसने अपने दोस्तों से साफ़ कह दिया था, “मैं तब तक नहीं जाऊँगा, जब तक मुझे हर उस घटना का सच पता न चल जाए, जिसके बारे में मैंने लोगों के अनुभव पढ़ते समय जाना था…”

अंत में सिर्फ़ वही चश्मिश लड़का बचा था। उसने एक खास कब्र के बारे में पढ़ा था कि अगर कोई उस पर उल्टी दिशा में मुँह करके बैठ जाए, तो पीछे से कोई अदृश्य ताकत उसे धक्का देती है। और जैसे किसी अनजानी ज़िद ने उसे घेर लिया हो—वह सच जानने के लिए बेहद डरता हुआ उसी कब्र पर जाकर बैठ गया।

कुछ देर सन्नाटा रहा… फिर अचानक एक ज़ोर का धक्का लगा। वह उछलकर आगे गिर पड़ा। उसके चेहरे पर ऐसा डर था कि उसके भीतर की सारी जिज्ञासा उसी क्षण मर चुकी थी। वह भी बाकी दोस्तों की तरह भागा—और जब वे सभी कार में जाकर बैठे, तो कार एक बार भी स्टार्ट नहीं हो रही थी, मानो कोई अदृश्य शक्ति, जो बेहद ताक़तवर थी, उन्हें वहीं रोक रही हो। लेकिन जैसे-तैसे वे उस रात वहाँ से निकल पाए।

अगले ही दिन, कॉलेज की कैंटीन में बैठे वे लोग डरते हुए पिछली रात की बातें कर रहे थे। वहीं पास में एक दूसरा टीनएजर्स का ग्रुप बैठा हुआ था। उनके कानों में जब यह कहानी पहुँची, तो वे धीमे-धीमे मुस्कुराने लगे। पहले तो उन्हें यह सब ड्रामा लगा, पर जिज्ञासा होती ही ऐसी है—इसीलिए अगले दिन उन्होंने भी वहाँ जाने का प्लान बना लिया।

और फिर, अगली रात उसी कब्रिस्तान के सामने पहुँचा एक नया ग्रुप—और उनके साथ भी वही सब हुआ, जो इससे पहले वाले ग्रुप के साथ हो चुका था।

उस दोपहर, जब मैं और बुआओं के लड़के उसी शो की बातें कर रहे थे, तो न जाने क्यों… हमारे मन में भी कहीं बाहर निकलकर किसी रोमांचक सफ़र पर जाने का विचार उठने लगा। शायद उस शो की कहानी कहने की शैली, शायद उस एपिसोड का माहौल, या शायद हमारी उम्र का वही पुराना उत्साह—कुछ तो ऐसा था, जिसने हम तीनों के भीतर हलचल मचा दी थी।
हमने एक-दूसरे को देखा और लगभग बिना बोले ही समझ गए कि आज घर पर बैठने का बिल्कुल मन नहीं है।

और इसी तरह, हम उठे, थोड़ी तैयारी की और घर के सामने से गुजरती रेलवे पटरियों की ओर चढ़कर आगे बढ़ने लगे—उन्हीं पटरियों के किनारे-किनारे खेरी नाम के गाँव की ओर।

उन दिनों दैनिक भास्कर में उस जगह के बारे में कुछ हॉरर किस्से छपते रहते थे—कभी किसी रात अजीब आवाज़ें सुनाई देना, कभी किसी राहगीर का पटरियों के पास किसी परछाईं को देखने का दावा, तो कभी लोगों का कहना कि वहाँ शाम के बाद कोई रुकता नहीं। यह उन दिनों की बात थी, जब मीडिया, टेलीविज़न और सिनेमा जगत डरावनी कहानियों के ज़रिए लोकप्रियता हासिल कर रहा था।
हम सच जानते थे, इसलिए बहुत कम डरते हुए हँसकर बोले,

“चलो देखते हैं… क्या पता कुछ दिलचस्प मिल जाए।”

भूत देखना तो सिर्फ़ बहाना था; हमें तो एक रोमांचक सफ़र पर निकलना था—थोड़ा डर, थोड़ा मज़ा… बस वही।

उन दिनों हमारे पास न मोबाइल था, न इंटरनेट।
बस तीन लड़के, एक गर्म दोपहर, और सामने फैली लंबी, सुनसान रेलवे लाइन—जिसके दोनों ओर सरसराती झाड़ियाँ खुद एक कहानी सुनाने को तैयार लग रही थीं।

रेलवे फाटक तक पहुँचकर हम तीनों बस यूँ ही आसपास देख रहे थे… तभी थोड़ी ही दूरी पर एक छोटी-सी दुकान नज़र आई—जिसमें पर्चून का सामान मिल रहा था। हमने वहाँ से कुछ आम पाचक जैसी खट्टी-मीठी गोलियाँ और चूरन, उस समय की मशहूर ‘राजू’ सुपारी, और बाकी छोटी-मोटी चीज़ें लीं। वहीं हमें अपने चाचा का एक दोस्त भी दिख गया। हमें लगा कि वह हमारे बारे में किसी से कुछ कह न दे, इसलिए हम वहाँ से तुरंत निकल लिए।

जेब में वह सारी चीज़ें लेकर हम वापस फाटक की ओर लौट ही रहे थे कि मेरी नज़र गेटमैन के कमरे पर जा टिकी… और कसम से, वैसा अद्भुत दृश्य मैंने ज़िंदगी में आज तक नहीं देखा।

वह कमरा… जिसकी दीवारें लाल-कत्थई रंग से पुती हुई थीं। कमरे के ठीक सामने एक खाली, सूखा और बिल्कुल साफ-सुथरा स्थान था—जो मिट्टी और गोबर से लीपा-पोता हुआ चमक रहा था। वह देहाती सफ़ाई किसी लकड़ी के फर्श से कम नहीं लग रही थी।

हम खट्टी-मीठी गोलियाँ और चूरन-सुपारी का मज़ा लेते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ते गए।

पहले तो बड़ा पुल आया—जहाँ हम कभी-कभार घूमने आते थे—लेकिन आज न जाने क्यों, साहस थोड़ा ज़्यादा था, या फिर मन ही कुछ और था। हम बड़े पुल से भी आगे निकल आए। यह पहली बार था जब हम इतने दूर पैदल आए थे। हवा भी बदलने लगी थी, और पेड़-पौधे, घास-वगैरह की खुशबू आने लगी थी।

कुछ ही देर में हमें सामने एक गाँव-जैसी छोटी-सी बस्ती दिखाई दी। हममें से किसी को पता नहीं था कि उस जगह का क्या नाम है—न कोई बोर्ड, न कोई संकेत; बस कच्चे-पक्के घर, कच्ची पगडंडियाँ, और धूप में खेलते कुछ बच्चे।

हमने वहाँ भी कुछ खाने की चीज़ें खरीदीं—लेकिन जैसे ही हम अंदर बढ़े, एक बात साफ़ महसूस हुई: उस बस्ती में हम जैसे नए लोगों का आना बहुत कम था, या कहें, लगभग न के बराबर था।

हम आगे बढ़ते गए और फिर दूसरे रास्ते से, जहाँ वह बस्ती खत्म होती थी, रेलवे पटरियों तक लौट आए।

अब सूरज थोड़ा झुकने लगा था, और वह लंबी रेलवे लाइन हमारे कदमों के साथ-साथ थकान और रोमांच—दोनों को बटोर रही थी। हम चलते रहे… और सच कहूँ तो, बिना किसी ख़ास मकसद के ही चलते रहे।

शाम धीरे-धीरे ढल रही थी। हवा ठंडी होने लगी थी। तभी पटरियों के बिल्कुल किनारे हमें एक पुराना, जर्जर, टूटा हुआ कमरा दिखाई दिया—न जाने किसके लिए बनाया गया था। वहाँ न कोई फाटक था, न कोई इंतज़ार करने की जगह… बस एक ऐसा ढांचा, जो धूप-बारिश झेलते-झेलते अपनी कहानी खुद जी चुका था।

हमने सोचा—“यार, यह क्या है? किसके लिए बनाया गया होगा?”

हम आगे बढ़ते गए… और अब अँधेरा उतरने लगा। दूर कुछ चरवाहे दिखाई दिए, जो अपनी भेड़-बकरियाँ लेकर वापस लौट रहे थे। पूरा माहौल बता रहा था कि सब अपने-अपने घरों की ओर जा रहे हैं… सिवाय हम तीन लोगों के।

अँधेरा गहराने लगा। चरवाहे लौट रहे थे—और हम तीनों ही ऐसे थे, जो घर नहीं लौट रहे थे।

शायद इसलिए कि वह टीनएज उम्र ही ऐसी होती है—जहाँ डर कम लगता है और दुनिया बड़ी लगती है; जहाँ पैरों में दर्द से पहले दिमाग में रोमांच जागता है।

हम इतना आगे निकल आए थे कि अब हमें खुद यह चिंता होने लगी थी कि वापसी में कितना समय लगेगा। रात काफ़ी हो चुकी थी, और झींगुरों, मेंढकों तथा न जाने किन-किन जीव-जंतुओं की आवाज़ें आने लगी थीं। आसपास के जानवरों की सिर्फ़ आँखें दिख रही थीं।

अँधेरा गहराता गया और, सच कहूँ तो, अब हमें भूत-प्रेत से नहीं, बल्कि गुंडे-बदमाशों से ज़्यादा डर लगने लगा था।

कई मिनट खामोश चलने के बाद हमने एक-दूसरे का चेहरा देखा—और बिना बोले ही समझ गए कि अब बस… अब हमें वापस लौटना चाहिए।

लंबी साँस लेकर, थोड़ी हिम्मत जुटाकर हमने वापसी की दिशा में कदम बढ़ाए—और वहीं से असली सफ़र शुरू हुआ।

रास्ते में दूर कुछ आवारा लोग पटरियों पर बैठे दिखाई दिए, जो बीड़ी या सिगरेट पी रहे थे। उस रात अँधेरा इतना घना था कि बीड़ी और सिगरेट की सिर्फ़ लाल-लाल चमक ही दिखाई दे रही थी।

हम अपनी खट्टी-मीठी, चटपटी चीज़ों के सहारे, मस्ती में बातें करते-करते कब रेलवे लाइन से होते हुए वापस अपने घर पहुँचे—हमें पता ही नहीं चला।

घर पहुँचते ही हम सब अपने-अपने कमरों में बिखर गए—और फिर वही पुरानी ज़िंदगी, वही रोज़मर्रा की कहानी शुरू हो गई।

पर जैसा कि तुम्हें पहले से पता होगा, मुझे बचपन से ही कहानियाँ पढ़ने और लिखने का बेहिसाब शौक है। और उसी शौक ने उस दिन के सफ़र को एक फ़िक्शन कहानी में बदल दिया—ऐसी कहानी, जो कुछ ही दिनों में पूरे खानदान में मशहूर हो गई।

कोई पूछता, “क्या सच में ऐसा हुआ था?”
कोई डाँट देता, “क्यों गए थे वहाँ?”
कोई बुआ कहतीं, “क्यों गए थे तुम लोग वहाँ? पता है, जब पुल बनते हैं तो बलि दी जाती है! उनकी रूह वहीं भटकती है!”
तो कोई उत्सुकता से कहता, “तुम खुद सुनाओ, क्या-क्या हुआ था?”

लोग रोमांचित थे—क्योंकि वह कहानी ही कुछ ऐसी थी।

मैंने सच में उस सफ़र को डरावनी कहानी में पिरो दिया था, ताकि हर कोई जानने को उत्सुक रहे कि क्या वाकई हमारे साथ ऐसा कुछ हुआ था।

सच तो यह था कि हमारे उस सफ़र में जो-जो घटा—क्या खरीदा, कहाँ गए, किससे मिले—वह सब बिल्कुल वैसा ही था… बस वापसी में मैंने उस एडवेंचर में थोड़ा-सा हॉरर का तड़का डाल दिया था। 😄

और उसी तड़के ने उस रोमांचक-से सफ़र को एक थ्रिलिंग फैंटेसी बना दिया—जिसे लिखकर मुझे खुद भी एक अजीब-सी खुशी, एक अलग-सा नशा मिला था। 😁

पर सच बात… जो चीज़ आज भी मन में सबसे ज़्यादा चमकती है, वह है—गेटमैन का कमरा। आज जब उस रोमांचक सफ़र के बारे में सोचता हूँ, तो सबसे ज़्यादा याद वही लाल-कत्थई छोटा-सा कमरा आता है—सामने मिट्टी से बना आँगन, कमरे के अंदर पुरानी खाट, धुंधला बिस्तर, दीवार पर टँगा कैलेंडर, और कमरे के बाहर चबूतरे के कोने में रखा हुआ वह काला रोटरी टेलीफोन—गोल घूमने वाला डायल—और उसके आसपास पसरा हुआ सन्नाटा… मानो हवा भी रुककर उसे देख रही हो।

ऐसा दृश्य मैंने फिर कभी नहीं देखा।

रेलवे पटरियों की गिट्टियाँ उस कमरे के सामने बने छोटे से चबूतरे को छूती थीं—ऐसा लगता था जैसे कमरा खुद पटरियों का हिस्सा हो, या पटरियाँ उस कमरे की रखवाली कर रही हों।

सच कहूँ, वह दृश्य सिर्फ़ एक नज़ारा नहीं था—वह ज़मीन की अपनी रौनक थी। और सच्ची रौनक कभी पैसों से नहीं खरीदी जा सकती… उसे तो बस कुदरत छिड़कती है, जिस पर इंसान हाथ फेरकर अपनी यादें बसा देता है।