मन में आया दृश्य जो सच साबित हुआ...
Storytellingयह बात तब की है, जब मेरी उम्र लगभग 15 या 16 साल रही होगी।
उस दिन मैं सुबह-सुबह सब्ज़ियाँ लेने रेलवे लाइन पार कर पास की ही मंडी जा रहा था।
वैसे तो सब्ज़ियाँ और भी कई जगहों पर मिल जाती थीं, जिससे मुझे पटरियाँ पार करने की ज़रूरत नहीं पड़ती।
लेकिन रेलवे लाइन के उस पार गाँव वालों की एक छोटी-सी मंडी लगती थी — जहाँ ज़्यादातर सब्ज़ियाँ स्वादिष्ट, ताज़ी, सेहतमंद और बिना किसी केमिकल के होती थीं।
इसीलिए, केवल मैं ही नहीं, बल्कि और भी बहुत लोग सब्ज़ियाँ लेने वहीं जाते थे।
मंडी का माहौल
वहाँ सब्ज़ियाँ ज़मीन पर बोरी या प्लास्टिक की थैलियों पर रखी होती थीं।
वो माहौल, वो बोलचाल, वो अपनापन — इसमें कुछ ऐसा था, जो शहरी दुकानों में कभी महसूस नहीं होता।
यात्रा की शुरुआत
मैं घर के सामने वाले रास्ते से पटरी पर चढ़ा और किनारे-किनारे चलता हुआ आगे बढ़ने लगा।
तभी अचानक मेरे मन में कुछ दृश्य उमड़ने लगे — एक कल्पना, एक एहसास सा।
मैंने अपने मन की आँखों से देखा — गाँव वालों की उसी मंडी में सोनू के पापा सब्ज़ियाँ लेते हुए मोलभाव कर रहे हैं और दुकानदार से कह रहे हैं:
“अब पैसे बचे नहीं हैं, इतने में ही दे दो।”
मैंने कल्पना में ही उनसे कहा:
“अरे, कम पड़ रहे हैं तो मुझसे ले लो।”
उन्होंने मेरी पीठ पर प्यार से हाथ फेरते हुए, अपने झोले की सब्ज़ियाँ दिखाते हुए जवाब दिया:
“बस बेटा, सब्ज़ी तो ले ली है, सोच रहा था कि करेले भी ले चलूँ…”
सिर्फ़ ख़्याल?
सब्ज़ी मंडी में मोलभाव करना और पैसे कम पड़ जाना, न होने पर किसी अपने से कुछ लेना-देना — ये तो आम बातें हैं।
और मन तो है ही कल्पनाओं का घर, कभी न कभी, कुछ न कुछ सोच ही लेता है।
पर अब ज़रा आगे सुनिए…
हक़ीक़त का सामना
ये सब कुछ मेरे मन में चल रहा था — न कोई सपना, न कोई अजीब कल्पना।
मैं तब तक मंडी पहुँचा भी नहीं था।
जब मैं मंडी पहुँचा, तो उस दृश्य को पीछे छोड़ चुका था।
अब ध्यान सिर्फ़ सब्ज़ियाँ खरीदने पर था — रोज़ की तरह भीड़, आवाज़ें, ताज़गी की ख़ुशबू।
तभी अचानक…
मुझे वही दिखे — सोनू के पापा।
पहली बार मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया।
मन में हल्की-सी झलक आई कि मैंने तो इन्हें कुछ देर पहले “देखा” था… लेकिन खुद से कहा — “अरे, वो तो बस ख़्याल था।”
दूसरी बार वही दृश्य
कुछ देर बाद वे मुझे दूसरी जगह फिर दिखाई दिए — ठीक उसी तरह मोलभाव करते हुए और वही बात कहते हुए:
“अब पैसे बचे नहीं हैं, इतने में ही दे दो।”
इस बार मैंने वही किया जो मेरे ख़्यालों में आया था।
मैंने कहा:
“अरे, कम पड़ रहे हैं तो मुझसे ले लो।”
और जैसे मेरे मन का दृश्य हक़ीक़त बन गया हो —
उन्होंने मेरी पीठ पर प्यार से हाथ फेरते हुए, अपने झोले की सब्ज़ियाँ दिखाते हुए जवाब दिया:
“बस बेटा, सब्ज़ी तो ले ली है, सोच रहा था कि करेले भी ले चलूँ…”
पुराना जुड़ाव
सोनू के पापा से हमारे घर का एक विशेष जुड़ाव था।
हर साल मुहर्रम के महीने में उनके द्वारा हज़रत इमाम हुसैन की याद में रखे जाने वाले रोज़े का इमामबाड़ा हमारे घर के सामने ही सजाया जाता था।
मुहर्रम के दस-बारह दिन वे वहीं बिताते थे।
अब तक मैंने उन्हें उस सब्ज़ी मंडी में कभी नहीं देखा था।
हालाँकि वे पटरियों के उस पार रहते थे, लेकिन उनका घर उस मंडी से काफ़ी दूर — गुप्तापुरा में था।
तो फिर…?
उस दिन मैं मंडी पहुँचने से पहले जो दृश्य अपने मन में देख चुका था — वह कैसे सच्चाई बन गया?
शायद यह मेरे जीवन का एक छोटा-सा पूर्वाभास था।
कभी-कभी जीवन हमें पहले ही बता देता है कि आगे क्या आने वाला है —
बस ज़रूरत होती है उन संकेतों को समझने की।
पर यह शायद उन संकेतों में से नहीं था।
यह भी केवल अवचेतन मन का एक खेल था।
और ऐसी बातें — या इससे मिलती-जुलती अवस्थाएँ — अवचेतन मन से जुड़े लोगों में अक्सर होती रहती हैं।
अंत में…
जो महसूस किया, वह महज़ एक ख़्याल नहीं था —
वह दिल की गहराई से निकला हुआ सच था, जिसे मन पहले ही जान चुका था।
