कुदरत का खेल
Storytellingएक बार मेरी बुआ अपने मायके आई हुई थीं और एक-दो दिन के लिए हमारे घर पर रुकी थीं। एक रात घर में अच्छी-खासी बातों की महफ़िल जमी थी। चाय बन रही थी और इसके बाद हम सभी मिलकर एक अच्छी सी फ़िल्म देखने का भी प्लान बना रहे थे। लेकिन बातों का सिलसिला इतना दिलचस्प था कि उसी में बड़ा लुत्फ़ आ रहा था।
बातों के दौरान अचानक पता नहीं क्या मोड़ आया कि मेरा भाई अपने एक दोस्त के दोस्त का ज़िक्र करने लगा—या यूँ कहें कि वह उस पर हँस रहा था। भाई ने उसका नाम लेते हुए कहा कि जब भी वह किसी शादी में जाता है, उसे किसी न किसी लड़की से प्यार हो जाता है। फिर वह अपने दोस्तों से अक्सर इस तरह की बातें करता—
"यार, वो मुझे देख रही थी..."
और उसके सभी दोस्त हमेशा की तरह उसे समझाते—
"नहीं देख रही थी यार..."
तो उसका हमेशा रुआँसा होकर और झुँझलाकर तेज़ आवाज़ में जवाब होता—
"नहीं यार, देख रही थी — वो मुझे!"
यह सुनकर हम सब हँसने लगे।
यह बात सही है कि किसी लड़की की नज़र हमेशा किसी खास मंशा से नहीं होती। लेकिन अगर कोई लड़की आपको देखती है, तो क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि वह आपसे प्यार करती है? या फिर आपको भी उससे प्यार करना चाहिए?
बात यहीं से निकलकर और मज़ेदार हो गई, जब बुआ ने अपने टीनएज दिनों का एक किस्सा सुनाया। उन्होंने कहा कि जब वे अपनी सहेलियों के साथ आँगन में काम करती थीं, तो बगल वाले घर का एक लड़का अक्सर उन्हें छत से देखा करता था। वे जल्दी-जल्दी काम निपटा लेतीं और वहाँ से हट जातीं। लेकिन यह बात उन्होंने कभी अपने भाइयों से नहीं कही—कहीं वे गुस्से में आकर उस लड़के को कुछ कर न दें।
"वो लड़का आचरण में बुरा नहीं था," बुआ बोलीं, "बस उसमें एक अजीब-सी आदत थी — मुस्कुराते हुए लगातार ताकते रहना।"
हमें यह जानकर बहुत हँसी आई कि जो अंकल अब शांत, शरीफ़ और संस्कारी दिखते हैं, वे कभी ऐसे भी हुआ करते थे।
बातों का सिलसिला यूँ ही चलता रहा...
बुआ द्वारा सुनाया गया यह क़िस्सा बहुत पुराना था। ज़ाहिर सी बात है, तब उनकी शादी भी नहीं हुई थी, और शायद पापा की भी नहीं।
समय बीतता गया। बुआ ने जब वह पुराना क़िस्सा सुनाया था, उसके लगभग एक साल बाद...
एक शाम मैं चाचा के साथ बाहर बैठा था। उन्होंने उसी शख़्स का ज़िक्र किया—कल वह अपने घर के पास रहने वाली एक लड़की की शिकायत लेकर उसके चाचा के पास गया था। उस वक़्त मैं भी वहाँ मौजूद था।
उसने उस लड़की के चाचा से कहा—
"आपकी भतीजी, बगल में रहने वाले लड़के से रोज़ छत पर आकर बातें करती है। मैं रोज़ उन्हें बातचीत करते देखता हूँ।"
वह इंसान, जो किशोरावस्था में छत पर खड़ा होकर दूसरों के आँगन में झाँका करता था, आज किसी और की बेटी पर उंगली उठा रहा था।
कुदरत का खेल अजीब है।
वह इंसान, जो कभी ताक-झाँक करके मुस्कुराया करता था, आज उसी दिशा में बार-बार देख रहा है—पर अब ग़ुस्से और जलन के साथ।
जब भी वे दोनों छत पर बातें करते, कुदरत जैसे बार-बार उसका ध्यान उसी ओर खींच लेती — जहाँ कभी उसकी नज़रें टिकती थीं।
कुदरत जैसे उसे यह सबक सिखा रही थी कि दूसरों के घर झाँकना क्या होता है।
शिकायत से कुछ नहीं होगा... कुदरत कर्मों के बदले खुद तय करती है—कब कैसे और किसके ज़रिए।
आपको क्या लगता है, वह उस लड़की के चाचा से सिर्फ़ इसलिए शिकायत करने गया था क्योंकि उसे रिश्तों और समाज की परवाह थी? नहीं!
दरअसल, रंगीन मिज़ाज के बहुत-से लोगों में मैंने एक अजीब बात देखी है—जब वे किसी और को वही करते देखते हैं जो कभी वे खुद करते थे (या अब भी करते हैं), तो उनका दिल भीतर से जल उठता है।
जब खुद करते हैं, तो सब जायज़ लगता है। लेकिन जब कोई और करे, तो नफ़रत, जलन और ताने शुरू हो जाते हैं।
मुझे आज भी याद है मम्मी जिनसे कपड़े लाया करती थीं—अशोक भैया।
उनके प्लास्टिक बैग पर नीचे एक लाइन छपी होती थी—
"जैसी करनी वैसा फल, आज नहीं तो निश्चय कल।"
कुदरत अगर हिसाब करने बैठे, तो बरसों इंतज़ार कर सकती है।
फिर जब जवाब देती है, तो इंसान सिर्फ़ यही कहता है—
"पता नहीं ये सब मेरे साथ ही क्यों हो रहा है?"
लेकिन सच ये है कि कर्म हमेशा लौटते हैं।
और जो तकलीफ़ आप दूसरों को देते हैं, वही तकलीफ़ कई गुना होकर वापस आती है।
क्योंकि हर कहानी की शुरुआत आपकी ही नज़र से होती है — और उसका अंत, कुदरत अपने हिसाब से लिखती है।
यह लेख सच्ची घटनाओं से प्रेरित है। इसमें सम्मिलित सभी पात्रों की निजता का सम्मान करते हुए किसी का वास्तविक नाम प्रकाशित नहीं किया गया है।
