बिरयानी सिर्फ़ नॉनवेज? क्या वाक़ई वेज़ बिरयानी जैसी कोई चीज़ नहीं होती?
Thoughtsआजकल सोशल मीडिया पर एक ख़ास तरह की वीडियो बहुत वायरल हो रही हैं, जिनमें लोग बड़े आत्मविश्वास के साथ कहते नज़र आ रहे हैं—
“वेज़ बिरयानी जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं!”
बड़े-बड़े शेफ़ और अब तो कुछ सेलेब्रिटीज़ भी यही लाइन दोहराते दिख रहे हैं।
मुझे सबसे ज़्यादा हैरानी इस बात की होती है कि दुनिया में “भेड़चाल” का कितना बड़ा दबदबा है।
किसी एक ने कह दिया कि “वेज़ बिरयानी जैसी कोई चीज़ नहीं होती”, तो अब आलम यह है कि हर कोई वही बात आगे बढ़ाता जा रहा है।
कोई अपना दिमाग लगाना ज़रूरी ही नहीं समझता।
जो शेफ़ कह रहे हैं, लोग वही सच मान लेते हैं—क्योंकि वे बड़े पद पर होते हैं, इसलिए जो उन्होंने कहा वही अंतिम सत्य मान लिया जाता है।
“वेज़ बिरयानी जैसी कोई चीज़ नहीं होती, वह असल में वेज पुलाव है” — इस तरह का वाक्य लोग अक्सर इसलिए दोहराते हैं, ताकि यह जताया जा सके कि नॉनवेज ही असली ‘किंग’ होता है; वेज उसकी बराबरी कभी नहीं कर सकता।
नॉनवेज का गुणगान करते हुए सोशल मीडिया पर एक पॉडकास्ट क्लिप भी बहुत वायरल हो रही है, जिसमें पुनीत सिंह, शेफ़ अनिरुद्ध जी से पूछते नज़र आते हैं—
“क्या वाकई वेज़ बिरयानी नाम की कोई चीज़ होती है?”
इस पर शेफ़ अनिरुद्ध जी जवाब देते हुए कहते हैं—
“अगर हम ऑथेंटिसिटी पर जाएँ, तो असल में न बिरयानी मटन की है, न बिरयानी चिकन की।
असल जो बिरयानी है, वह है ‘बड़े’ की—यानी उस दौर में जिस बड़े जानवर के मांस का इस्तेमाल होता था, जैसे बीफ़ या कहें बफ़।
पहले ज़माने में, जब बिरयानी और निहारी की शुरुआत हुई थी, तब यह सैनिकों के लिए बल्क में बनाई जाती थी।
जब हुमायूँ अपने रकाबदारों या कहें खानसामों के साथ आया करता था, तो उसके साथ विशाल लश्कर भी होते थे।
उसके अपने खानसामे भी होते थे, और इतने बड़े समूह के लिए अलग-अलग खाना बन पाना संभव नहीं था।”
क़िस्सा और ऐतिहासिक संदर्भ बताने के बाद, शेफ़ अनिरुद्ध जी अंत में यही कहते दिखाई पड़ते हैं—
“बिरयानी वेज नहीं हो सकती—वह असल में पुलाव है।”
ख़ैर, यह उनका तर्क है।
लेकिन मेरा तर्क यह कहता है कि यदि इतिहास को ही देखा जाए, तो हमें स्पष्ट पता चलता है कि समोसा मूल रूप से ईरान का व्यंजन माना जाता है।
ऐतिहासिक दस्तावेज़ बताते हैं कि यह “संबुसाक” नाम से जाना जाता था—एक छोटा, कीमा-भरा पेस्ट्री।
भारत में यह मध्य एशियाई व्यापारियों के माध्यम से पहुँचा, और यहाँ के स्थानीय मसालों व आलू के साथ मिलकर आज का लोकप्रिय भारतीय समोसा बन गया।
अब सोचिए—इसी तर्क के आधार पर अगर कोई कहे—
“आलू के समोसे जैसी कोई चीज़ नहीं होती, असल जो समोसा है, वह है ‘कीमे’ का।”
तो क्या यह तर्क सही लगेगा?
इसी तरह शेफ़ रणवीर बराड़ भी कहते दिखते हैं कि वेज़ बिरयानी नाम की कोई चीज़ नहीं होती, बाक़ी “दिल बहलाने को ग़ालिब ख़याल अच्छा है” वाला सीन है।
उनका तर्क है कि बिरयानी को पकने में जो वक़्त लगता है, वही उसका फ़्लेवर बनाता है—सब्ज़ियाँ जल्दी पक जाती हैं; इसलिए वह गहराई वाला स्वाद विकसित नहीं हो पाता।
लेकिन मैं इस तर्क से भी सहमत नहीं हूँ, क्योंकि बिरयानी एक–दो तरीक़ों से नहीं, बल्कि हज़ार तरीक़ों से बनाई जाती है।
मैंने अक्सर देखा है कि झाँसी के भटियारे गोश्त, मसालों और लहसुन–प्याज़ को पानी में उबालकर उसकी यख़नी तैयार करते हैं,
और फिर साधे पानी की बजाय उसी यख़नी को चावल पकाने में इस्तेमाल करते हैं—शुरुआत से लेकर अंत तक बिरयानी बनने में घंटों लग जाते हैं।
वहीं हमारे डबरा से कुछ ही दूर ग्वालियर के मशहूर “रहूप भाई” कुछ ही समय में बिरयानी तैयार कर देते हैं,
और स्वाद ऐसा कि आसपास के शहरों से भी लोग उनकी बिरयानी चखने आते हैं।
वह वेज़ बिरयानी भी बनाते हैं—प्रोसेस बिल्कुल वही, सिर्फ मीट की जगह उबले हुए सोया चंक्स और काबुली चने डाल दिए जाते हैं।
टेस्ट? वही चटपटापन, वही तीखापन, वही खुशबू, वही ज़ायका!
तो क्या यह कहना सही होगा कि “बिरयानी टाइम लेती है, इसलिए वेज़ बिरयानी जैसी कोई चीज़ नहीं हो सकती”?
बिल्कुल नहीं।
एक और मज़ेदार हाल यह है कि कुछ लोग अगर बिरयानी को अपनी शैली से अलग तरीके में बनते देख लें, तो तुरंत सवाल उठाने लगते हैं।
आजकल एक वीडियो बहुत वायरल है, जिसमें एक लेडी मज़ाकिया अंदाज़ में पूछती दिख रही है—
“हैदराबादी लोग बिरयानी में टमाटर कायको डालते?”
जवाब सुनकर लगा मानो टमाटर डालना बिरयानी का अपमान मान लिया गया हो।
साथ ही लेडी को यह नसीहत भी दी जाती है—
“आप लखनऊ में हैदराबादी बिरयानी मत खाइए, आप हैदराबाद आकर हैदराबादी बिरयानी खाइए।”
इस जवाब से एक और गलतफ़हमी पैदा होती है—कि बिरयानी का स्वाद जगह पर निर्भर करता है।
लेकिन वास्तविकता यह है कि स्वाद जगह से नहीं, बनानेवाले की कला से आता है।
अगर बनानेवाले में कला है, तो—
- वेज़ बिरयानी जैसी भी चीज़ होती है,
- जल्दी बनने वाली बिरयानी भी लज़ीज़ हो सकती है,
- और वह बिरयानी भी लोगों की पसंदीदा हो सकती है जिसमें टमाटर डाला गया हो।
और जैसा मैंने पहले कहा—स्वाद जगह से नहीं, बनानेवाले की कला से आता है।
इसका जीता-जागता उदाहरण यह है कि मैंने दिल्ली की जामा मस्जिद की मुख्य सड़क—जो स्ट्रीट फूड के मामले में काफ़ी मशहूर है—वहाँ की बिरयानी खाई है।
कसम से, उस जैसी बेस्वाद बिरयानी मैंने कहीं नहीं खाई।
तो क्या इसका मतलब यह है कि दिल्ली में अच्छी बिरयानी नहीं बनती?
अरे बनती है भाई, बिल्कुल बनती है!
मेरा कहने का मतलब सिर्फ़ इतना है कि स्वाद शहर तय नहीं करता; स्वाद इंसान की कला तय करती है।
क्या पता—हमारे डबरा में ही कोई ऐसा उस्ताद छिपा बैठा हो,
जिसके हाथ की बिरयानी का कोई जवाब ही न हो। 🙂
