श्रीकृष्ण भाई साहब: बचपन की यादों के सुखनवर
Nostalgiaएक समय ऐसा भी था, जब दिनभर के काम से थक-हार कर घर के बड़े-बुजुर्ग और खेलकूद में थके बच्चे या तो घर के आंगन में, या फिर छत पर बिस्तर बिछाकर सोने की तैयारी करते थे।
उन दिनों रात के समय बिजली बहुत कम रहती थी। खाने के बाद, वक्त बिताने का तरीका होता था — किस्से-कहानियों का कार्यक्रम।
रात के अंधेरे और भूतों की कहानियों के बीच डर का ऐसा माहौल बन जाता कि बाथरूम जाना या नीचे से पानी भरकर लाना किसी जंग जीतने जैसा लगता था!
यह माहौल अक्सर गर्मियों की छुट्टियों में मिलता था।
लेकिन बात करें सर्दियों की — जब घर में अक्सर बिजली नहीं होती थी, और हम सब बेसब्री से ज़ी हॉरर शो का इंतज़ार करते थे — तब हमारी बेचैनी को काफी हद तक कम करने आ जाते थे श्रीकृष्ण भाई साहब।
सर्दियों में जब हम अलाव जलाते थे, तो वह केवल ठंड से बचने का जरिया नहीं, बल्कि किस्सों और कहानियों का अड्डा बन जाता था। शाम होते ही लकड़ियाँ इकट्ठा होतीं, जगह साफ़ होती, और फिर जलती आग के चारों ओर हम बच्चे गोल घेरा बनाकर बैठ जाते।
और फिर शुरू होता किस्सों-कहानियों का सिलसिला — दो-तीन घंटे कैसे बीत जाते, पता ही नहीं चलता था।
जब हम 'ज़ी हॉरर शो' की बातें करते या कोई अलौकिक चर्चा छेड़ते, तो श्रीकृष्ण भाई साहब भी तुरंत उसी सुर में शामिल हो जाते। फिर अपनी खुद की ज़िंदगी से जुड़ी अलौकिक कहानियाँ हमें सुनाने लगते। उनका अंदाज़ ऐसा होता कि पूरा माहौल बंध जाता।
कई बार किस्से सुनते-सुनते रात इतनी गहराई में चली जाती कि उनकी पत्नी उन्हें बुलाने आ जातीं। और वे कह देते — "तू चल, मैं आ रहा हूं।" लेकिन महफिल का रंग इतना गाढ़ा होता कि वह जाते-जाते फिर कोई नई कहानी शुरू कर देते।
कई बार तो आग की लकड़ियाँ राख बन जाती थीं, लेकिन हम वहीं बैठे रहते — जब अचानक बिजली लौट आती, तो सोचते, उठें या कुछ देर और बैठे रहें? और फिर, कुछ देर और किस्सों की उसी जादुई दुनिया में खो जाते।
उनके सुनाए एक किस्से की याद आज भी दिल से मिटती नहीं।
उनका एक किस्सा ये था कि —
एक रात मैं और मेरा दोस्त एक सुनसान, वीरान रास्ते से लौट रहे थे।
रात इतनी घनी थी कि दूर तक कोई इंसान नज़र नहीं आ रहा था।
हम दोनों धीमे-धीमे बातें करते हुए आगे बढ़ रहे थे कि तभी—
हमारी बातचीत अचानक थम गई।
रास्ते के किनारे एक छोटा-सा बकरी का बच्चा खड़ा था।
बिल्कुल चुप… बिना किसी आवाज़, बिना किसी हरकत के।
हम दोनों ने बिना ज़्यादा सोचे उसे घर ले जाना ठीक समझा।
अब मेरे दोस्त ने साइकिल को खाली धकेलने के बजाय
उस पर बैठकर आगे बढ़ना ज़्यादा सही समझा।
दोस्त साइकिल चला रहा था, और मैं पीछे,
बच्चे को गोद में पकड़े बैठा था।
कुछ आगे पहुँचते ही
साइकिल अचानक भारी होने लगी।
पहले पैडल थोड़े सख़्त हुए, फिर एक अजीब-सी चरमराहट शुरू हो गई —
मानो पीछे किसी और का भार अचानक चढ़ गया हो।
पहले तो लगा शायद रास्ता ही ख़राब है।
फिर अचानक एक खुरदुरी-सी अजीब आवाज़ सुनाई दी।
क्या घिसट रहा है, यह जानने के लिए मैंने पीछे मुड़कर देखा।
और देखते ही मेरा दिल दहल गया।
बकरी के बच्चे के पिछले पैर
धीरे-धीरे खिंचते हुए बहुत लंबे होते जा रहे थे।
वे ज़मीन पर घिसट रहे थे
और खुरदुरी-सी, डरावनी आवाज़ कर रहे थे।
हड़बड़ाहट में जैसे ही मेरी नज़र उसके चेहरे पर पड़ी,
मैंने घबराकर उसे ज़ोर से झटका और साइकिल से नीचे गिरा दिया,
क्योंकि उसकी आँखें असामान्य रूप से बाहर निकल रही थीं।
मैंने चीखकर कहा,
“तेज़ चला!”
दोस्त ने साइकिल पूरी ताक़त से आगे बढ़ा दी।
वह भी समझ चुका था कि ये कोई मेमना नहीं…
कुछ और था।
डर के मारे उसने झोले से
अपनी लोहे की छुरी निकाली,
और साइकिल के हैंडल पर रगड़ने लगा।
च्र्र… च्र्र…
हम दोनों का मानना था कि
इस तरह की लोहे की घर्षण वाली आवाज़
प्रेत आत्माओं को पास आने से रोक देती है।
हम पीछे मुड़कर देखने की हिम्मत नहीं कर रहे थे।
थोड़ा आगे बढ़ते ही हमें लगा कि शायद अब सब कुछ पीछे छूट गया है।
लेकिन तभी… पीछे से
एक डरावनी आवाज़ आई —
“आज तो बच गए…
अगली बार नहीं बचोगे…”
वह जिस अंदाज़ में कहानियाँ सुनाते थे, वह इतना निराला और मनमोहक होता था,
कि सुनने वाला सच या झूठ की परवाह किए बिना पूरी कहानी में खो जाता।
किस्से-कहानियों की महफ़िल खत्म होती ही थी कि तब तक लाइट आ जाती थी, और ज़ी हॉरर शो के आने का समय भी हो जाता था। लेकिन तब तक नींद आँखों पर भारी होने लगती थी।
पापा चेहरे पर पानी के छींटे मारते और कहते — "उठो! पहले ज़ी हॉरर शो तो देख लो!"
पड़ोस की एक गली के कुछ बच्चे भी डरते-सकुचाते टीवी देखने आ जाते।
पहले दरवाज़े पर झाँकते, तो हमें लगता — बस एक-दो ही हैं।
फिर बुलाने पर हिम्मत करके अंदर आ बैठते।
और देखते-देखते पता चलता — "अरे, ये तो पूरी पलटन आ गई!" 😄
वे डरते भी थे और उस हॉरर शो के शौकीन भी थे।
बीच-बीच में जब विज्ञापन आते, तो उन्हें देखकर हँस पड़ते।
क्योंकि उन दिनों के ऐड भी कुछ खास ही होते थे—
"घर में तो मम्मी ने गरमा-गरम जलेबियाँ बनाई हैं..."
"पान पराग — पान मसाला..."
"खाओ गगन, रहो मगन..."
कभी-कभी एपिसोड इतने डरावने हो जाते कि सबको वापस जाते वक्त डर लगने लगता। पापा समझाते—"बेटा, ये सब काल्पनिक कहानियाँ हैं।" डरते-डरते वे सभी अपने घर की ओर लौटते।
सुबह फिर वही स्कूल, वही चहल-पहल। छुट्टी के बाद वही ज़ी हॉरर शो के एपिसोड की बातें आपस में करना, और फिर शुरू हो जाता दिनभर का वही खेल — क्रिकेट, कंचे, सितोलिया, और न जाने क्या-क्या खेल, जो आजकल कहीं देखने को नहीं मिलते।
खेलते-खेलते कभी किसी अम्मा की आवाज़ सुनाई देती —
"हे बेर बिरचुन बेर..."
तो कभी —
"गुलाब लच्छी, खाने में अच्छी..."
कभी पानी टिक्की वाला आ जाता,
कभी कुल्फी के ठेले से टन-टन बजती,
तो कभी आइसक्रीम वाले के भोंपू की आवाज़ मोहल्ले में गूंज उठती।
और फिर...
शाम के सौदागर — मुन्ना भाई साहब आ जाते, और शाम ढलते ही,
रात के सुखनवर — श्रीकृष्ण भाई साहब आ जाते, वही पुरानी कहानियाँ, वही रोमांच, वही अहसास लेकर...
यह भी एक अजीब इत्तेफ़ाक था — दोनों के नाम के साथ 'भाई साहब' जुड़ता था, जैसे प्रकृति ने तय कर रखा हो कि बचपन की यादों को हमेशा इज़्ज़त से संजोया जाए।
इस लेख को अंत तक पढ़ने के लिए शुक्रिया।
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