क्या हम सिनेमा की आत्मा को खोते जा रहे हैं?

क्या हम सिनेमा की आत्मा को खोते जा रहे हैं?

Ghibli-style illustration inspired by Shabbir Khan’s life and writings

क दौर था, जब फिल्में केवल मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज का आईना होती थीं। वे विचार जगाती थीं, रिश्तों को जोड़ती थीं और संस्कृति को समृद्ध करती थीं। लेकिन आज, जब हम स्क्रीन पर चल रही फिल्मों को देखते हैं, तो सवाल उठता है—क्या हमने अपनी रचनात्मकता और सांस्कृतिक मूल्यों को ट्रेंड्स की अंधी दौड़ में खो दिया है?

आइए कुछ विचार साझा करें, जो आज के फिल्म निर्माताओं और दर्शकों—दोनों को आत्ममंथन के लिए मजबूर कर सकते हैं:



🎞️ पुरानी रोचक फिल्में ही क्यों बेहतर हैं:

“आज की तुलना में पुरानी रोचक फिल्मों को बार-बार देखना ज्यादा सुखद अनुभव होता है। उनका हर दृश्य, हर संवाद आज भी दिल को छू जाता है—जबकि नई फिल्में अक्सर उबाऊ और सतही लगती हैं।”



‘रोचकता’ वह जादू है जो खामियों को भी ढँक देती है:

“जब फिल्म में रोचकता होती है, तो दर्शक पहनावे या तकनीकी कमियों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं। दुर्भाग्य से, आज की फिल्मों में वही 'रोचकता' ही ग़ायब है।”



🏕️ धारावाहिकों में बस पारिवारिक कहानियाँ क्यों?

“क्या आज ऐसा धारावाहिक नहीं बन सकता, जहाँ दोस्त मिलकर कैंपिंग पर जाएँ, रहस्यों की खोज करें — और साथ ही दोस्ती, रोमांच और संस्कृति की खूबसूरती को भी जी सकें?”



🎭 रचनात्मकता का अंत और आकर्षण का उदय:

“जब किसी की रचनात्मकता थम जाती है, तो वह आसान रास्ता चुनता है — आकर्षण दिखाने का। यह वही स्थिति है, जब कोई अमीर व्यक्ति हर सुख तो खरीद लेता है, लेकिन संतोष नहीं। नतीजा? रचनात्मक ऊर्जा कुंद होकर भटक जाती है।”



✍️ हाथ में कलम नहीं तो सिर में विचार नहीं:

“धारावाहिकों की गुणवत्ता तब बढ़ेगी, जब लेखक भीड़ से दूर होकर गंभीर लेखन की ओर लौटेंगे। संस्कृति को दिशा देने वाली कला, मौलिक सोच के बिना अधूरी है।”



💸 ‘दुनिया याद रखे’ से ‘पैसा डबल करो’ तक:

“पहले फिल्मकार समाज में अमिट छाप छोड़ने का सपना देखते थे। आज वे बस ट्रेंड पकड़कर मुनाफा कमाने के पीछे भाग रहे हैं—जो फिल्म को उत्पाद बना देता है, कला नहीं।”



❌ जहाँ ज़रूरत नहीं, वहाँ भड़काऊ दृश्य क्यों?

“यह फिल्म निर्माताओं की संवेदनहीनता और कला की अवहेलना का प्रतीक है। जब वे ऐसे दृश्य अनावश्यक रूप से जोड़ते हैं, तो वे दर्शकों की बुद्धिमत्ता और भारतीय संस्कृति—दोनों का अपमान करते हैं।”



🧠 क्या दिखावटी आकर्षण ही दर्शकों की पसंद है?

“जो फिल्मकार यह मान लेते हैं कि सतही आकर्षण ही दर्शकों को पसंद आता है, इसलिए उसे अपनी फिल्मों में रखना चाहिए — क्या यह उस बात से भी ज़्यादा बुरा नहीं, जैसे किसी शाकाहारी परिवार को कुछ ऐसा परोसा जाए जो उनके शाकाहारी होने के विरुद्ध हो? लोगों की सांस्कृतिक पसंद को नज़रअंदाज़ करके, निर्माता केवल अपने लालच की भूख मिटा रहे हैं।”



🎶 गानों का स्वर्ण युग कहाँ गया?

“एक समय था जब लोग पहले गाने सुनते थे, फिर फिल्म देखने जाते थे। फिर समय बदला—फिल्में पहले देखीं, गानों से लगाव हुआ। और आज? न फिल्में याद रहती हैं, न गाने। क्योंकि अब न गहराई रही, न आत्मा।”



🌧️ संगीत और नृत्य का सांस्कृतिक क्षरण:

“संगीत और नृत्य से कभी मेघ बरसते थे, तो कभी दीप जल उठते थे। पहले इन विधाओं को कठोर साधना माना जाता था, फिर इन्हें कला का रूप मिला, फिर इन्हें मनोरंजन कहा गया — और अब, दुर्भाग्यवश, इन्हें केवल आकर्षण की दहलीज़ पर लाकर खड़ा कर दिया गया है। यह केवल कला की नहीं, बल्कि हमारी सांस्कृतिक चेतना की भी त्रासदी है।”



निष्कर्ष:

फिल्में केवल पर्दे पर चलती कहानियाँ नहीं होतीं—वे संस्कृति का दस्तावेज़ होती हैं। अगर हम अपनी रचनात्मकता को बाज़ार की माँग पर गिरवी रखते रहेंगे, तो वह दिन दूर नहीं जब हमारी कला केवल एक व्यापार रह जाएगी—बिना आत्मा, बिना संवेदना।