अहंकार से लबालब भरे महानुभाव: एक ज़रूरी पहचान
Guidanceकुछ लोग ऐसे होते हैं जो पहली नज़र में बहुत ठीक लगते हैं।
बात करते हैं तो अपनापन झलकता है, व्यवहार में शालीनता दिखाई देती है, और मन सहज ही मान लेता है—
“अच्छे इंसान हैं।”
पर इस तरह की तहज़ीब ओढ़ लेने से कोई इंसान सच में अच्छा हो जाए, यह ज़रूरी नहीं।
असल में ऐसी तहज़ीब वाले लोगों में कुछ ऐसे भी होते हैं जो रिश्ते निभाने नहीं आते, बल्कि रिश्तों का इस्तेमाल करने आते हैं।
इनकी दुनिया में बराबरी नाम की कोई जगह नहीं होती।
या तो ये ऊपर होते हैं, या सामने वाला नीचे।
खुद को ये राजा समझते हैं और बाक़ी सबको मोहरा।
जब तक लोग इनके काम के होते हैं, तब तक क़रीबी रहते हैं;
और जैसे ही काम निकल जाता है, वही लोग बोझ बन जाते हैं।
इसीलिए इन्हें पहचानना ज़रूरी है—
बाद में नहीं, समय रहते।
रूठने वाले
ये लोग अक्सर अचानक रूठ जाते हैं।
कभी किसी छोटी-सी बात पर, कभी बिल्कुल बिना वजह।
असल में इन्हें बुरा नहीं लगता; ये बस यह परखते हैं कि आप उन्हें कितनी अहमियत देते हैं।
अगर आप मनाने लगें, बार-बार सफ़ाई देने लगें,
तो इनके भीतर का अहंकार तृप्त हो जाता है।
और अगर आप शांति से दूरी बना लें,
तो कुछ ही दिनों में यही लोग खुद लौटकर बात शुरू कर देते हैं।
क्योंकि सच्चाई यह है कि आपसे दूरी इनके लिए नुकसान का सौदा होती है।
अनदेखा करने वाले
इनकी एक पहचानने लायक आदत होती है—
जवाब न देना।
आप सामने से अभिवादन करें, तो ये बस हल्का-सा सिर हिलाकर आगे बढ़ जाते हैं।
मक़सद साफ़ होता है—
यह जताना कि “हम बहुत व्यस्त हैं, बहुत महत्वपूर्ण हैं।”
लेकिन जिस दिन आप इनके काम आने लायक बन जाते हैं,
उसी दिन यही लोग खुद आगे बढ़कर अभिवादन करते दिखाई देते हैं।
सामने से ही नहीं,
पीछे से भी लोग आपको “अभिवादन” करते हुए सुनाई देने लगते हैं।
क्योंकि इन्हें यह बात अच्छी तरह याद रहती है
कि एक दिन इन्होंने आपको अनदेखा किया था—
बस उसे खुले तौर पर स्वीकार करना
इन्हें शोभा नहीं देता।
रिश्तेदारों की अमीरी पर अकड़ दिखाने वाले
इनका घमंड प्रायः अपनी कमाई का नहीं होता।
दोस्त अमीर है, रिश्तेदार अमीर है, ख़ानदान का नाम है—
बस वही इनकी पहचान बन जाती है।
खुद के घर में पर्दा गिरा हुआ हो,
नल से पानी टपकता हो,
लेकिन चर्चा मामा, चाचा, फूफा और उनके फ़ार्महाउस की ही होती है।
और जब इनके घर कोई शादी-ब्याह हो
और ये सब लोग वहाँ इकट्ठा हों,
तो हाल कुछ और ही हो जाता है।
ऐसे मौक़ों पर गर्दन ऐसी अकड़ती है
कि सामने के अलावा कुछ दिखता ही नहीं—
बगल में खड़ा इंसान भी अदृश्य हो जाता है।
अमीरी और रुतबे का दिखावा करने वाले
इन अहंकारी लोगों के भीतर एक स्थायी डर छिपा रहता है—
कि कहीं कोई इन्हें नुकसान न पहुँचा दे।
इस डर को ये अमीरी और रुतबे का जामा पहनाते हैं।
बंदूक रखते हैं—
सुरक्षा के लिए कम,
दिखावे के लिए ज़्यादा।
बच्चों को लेकर हर समय चिंता का नाटक करते रहते हैं—
कहीं कोई कुछ खिला न दे,
कहीं कोई कुछ कर न दे।
असल चिंता कम,
इतराना ज़्यादा।
खाने में डर दिखाने वाले
खाने के मामले में इन्हें हमेशा टोने-टोटके का डर लगा रहता है।
अगर आप इन्हें खाने को कुछ दें,
तो अदब से पहले आपसे खाने के लिए कहेंगे—
और कभी-कभी यह सवाल भी ज़रूर करेंगे—
“यह किसने दिया?”
सीधा-सा खाना भी इन्हें संदिग्ध लगता है।
वजह साफ़ है—
ये खुद टोने-टोटके जैसी गतिविधियों में विश्वास रखते हैं।
इसीलिए इन्हें भीतर-ही-भीतर यह डर लगा रहता है
कि कहीं कोई उनके साथ भी वही न कर दे,
जो वे दूसरों के साथ करते हैं।
दिखावे की दुनिया वाले
ये लोग कैफ़े में बड़े-बड़े ब्रांड के बर्गर और पिज़्ज़ा खाते हुए
तस्वीरें सोशल मीडिया पर डालते हैं।
चाहे मैकडॉनल्ड्स का जोकर ‘रोनाल्ड मैकडॉनल्ड’ हो
या वहाँ सजी आलीशान मेज़—
इनके आसपास खिंची तस्वीरें ज़रूर ली जाती हैं,
ताकि सोशल मीडिया पर अमीरी का ढिंढोरा पीटा जा सके।
दिल से ये भी जानते हैं
कि असली स्वाद स्ट्रीट फ़ूड में है,
लेकिन दिखावे का फ़ोटोशूट
इन्हीं जगहों पर सजता है।
दिलचस्पी छुपाने वाले
ऐसे लोग भी होते हैं जो बार-बार यह जताते हैं
कि उन्हें आपकी गाड़ी, घर, मकान
या उनमें सजी मनोरंजन की चीज़ों से
कोई दिलचस्पी नहीं है।
असल में दिलचस्पी पूरी होती है,
बस उसे ज़ाहिर करना इनके घमंड के ख़िलाफ़ पड़ता है।
इन्हें डर रहता है कि अगर किसी और की चीज़ की तारीफ़ कर दी,
तो उनकी अपनी शान में कमी आ जाएगी।
मान लीजिए आपके कमरे में सौ इंच की शानदार स्मार्ट टीवी है।
फ़िल्म देखने की पहल ये खुद करेंगे,
लेकिन कमरे में आते ही नज़र मोबाइल पर टिका लेंगे—
ताकि यह साबित हो सके
कि वे फ़िल्म देखने नहीं, बस यूँ ही आ गए हैं।
हक़ीक़त यह होती है कि
वे फ़िल्म देखने ही आए होते हैं,
बस मानना नहीं चाहते—
क्योंकि रुचि दिखाना इन्हें छोटा लगने लगता है।
एहसान भी स्वीकार न करने वाले
इस तरह के लोगों की एक और बहुत आम आदत होती है।
किसी चीज़ की ज़रूरत पड़े
या कोई काम करवाना हो,
तो ये आपसे ख़ुद ही कहते हैं।
आप पूरी नीयत से हाँ कर देते हैं।
और जब आप उनसे कहते हैं—
“ले जाइए, वह चीज़ तैयार है”
या
“हो गया आपका काम,”
तो जवाब कुछ ऐसा आता है—
“हाँ, मैं उनसे बोल देता हूँ”
या
“ठीक है, मैं उनसे कह देता हूँ।”
यानि ज़रूरत इन्हें थी,
मदद इन्होंने माँगी थी,
काम आपने किया—
लेकिन अहंकार ऐसा कि यह मानने को तैयार नहीं
कि इन्होंने किसी से कुछ लिया है।
भाषा को इस तरह घुमा दिया जाता है
कि ऐसा लगे जैसे
इन्होंने एहसान लिया नहीं,
बस व्यवस्था करा दी हो।
यह मदद लेने की झिझक नहीं है,
सीधा अहंकार है।
दूसरे की सहायता स्वीकार कर लेना
इन्हें यह बात अपनी शान के ख़िलाफ़ लगती है।
दूसरों को नीचा दिखाने वाले
खुद के घर में सालों तक कोई सुविधा न हो,
लेकिन आपके यहाँ आएँगे तो उसी में कमी ढूँढेंगे।
कल तक जिनके घर में एसी नहीं थी,
और बिना एसी के ज़िंदगी चल ही रही थी—
आज वही हर जगह कहते फिरते हैं,
“हम एसी के बिना रह ही नहीं सकते।”
और आपके घर पहुँचते ही तंज़ उछलेगा—
“आपकी एसी से पानी क्यों टपकता रहता है?”
मतलब साफ़ है—
आपकी चीज़ को नीचा दिखाने की आड़ में
ये यह भी एलान कर देते हैं
कि अब इनके घर में एसी लग चुकी है।
खुद को महत्वपूर्ण दिखाने वाले
इनकी सबसे आम आदत—
व्हाट्सऐप पर उत्तर न देना।
संदेश देख लिया जाएगा,
लेकिन जानबूझकर देर की जाएगी।
क्योंकि देर से जवाब देना
इन्हें महत्वपूर्ण महसूस कराता है।
और जैसे ही इन्हें आपसे कोई काम पड़ता है,
तुरंत उपलब्ध हो जाते हैं।
यह व्यस्तता नहीं,
सीधा घमंड है।
सस्ती तरकीब वाले
खुद को बड़ा दिखाने के लिए
ये लोग हर हद पार कर देते हैं—
गरीब बच्चे का मज़ाक उड़ाना,
किसी के हिंदी माध्यम में पढ़ने पर तंज़ कसना,
किसी के लंगड़ेपन,
हकलाने,
शक्ल या बीमारी तक पर हँसना।
इनके लिए कोई बड़ी बात नहीं;
क्योंकि इनके यहाँ
खुद को बड़ा दिखाने का
सबसे सस्ता,
सबसे आसान
और सबसे नीच तरीका
यही है कि
किसी और को
छोटा कर दिया जाए।
हर बात का ढिंढोरा पीटने वाले
अगर इन्हें किसी को यह बताना हो कि ये महाशय क्या करते हैं,
तो एक डर भी साथ चलता है—
कहीं लोग इन्हें बड़बोला न समझ लें।
इसलिए ये सीधे नहीं बोलते।
बात को घुमा-फिराकर रखते हैं,
इतनी सफ़ाई से कि
आप खुद ही समझ जाएँ
कि इनका पेशा क्या है।
बातों-बातों में,
कहीं से भी,
बेहद मासूमियत ओढ़कर
अपनी उपलब्धि ठूँस देना
इनकी पुरानी आदत होती है।
जैसे—
“कल मैंने कोचिंग में
अपने एक स्टूडेंट को डाँट दिया,
बेचारा रोने लगा…”
इतना कहना ही काफ़ी होता है—
यह घोषित करने के लिए
कि महाशय कोचिंग चलाते हैं।
आख़िरी बात
ऐसे लोग बहुत मीठे होते हैं,
इसीलिए पहचान में देर लगती है।
लेकिन एक बार पहचान हो जाए,
तो दूरी ही सबसे समझदारी भरा रास्ता है।
पहचानिए, दूरी बनाइए—
और खुद को बचाइए।







