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अहंकार से लबालब भरे महानुभाव: एक ज़रूरी पहचान

कुछ लोग ऐसे होते हैं जो पहली नज़र में बहुत ठीक लगते हैं। बात करते हैं तो अपनापन झलकता है, व्यवहार में शालीनता दिखाई देती है, और मन सहज ही मा...

अहंकार से लबालब भरे महानुभाव: एक ज़रूरी पहचान

अहंकार से लबालब भरे महानुभाव: एक ज़रूरी पहचान

Ghibli-style illustration inspired by Shabbir Khan’s life and writings

कुछ लोग ऐसे होते हैं जो पहली नज़र में बहुत ठीक लगते हैं।
बात करते हैं तो अपनापन झलकता है, व्यवहार में शालीनता दिखाई देती है, और मन सहज ही मान लेता है—
“अच्छे इंसान हैं।”

पर इस तरह की तहज़ीब ओढ़ लेने से कोई इंसान सच में अच्छा हो जाए, यह ज़रूरी नहीं।

असल में ऐसी तहज़ीब वाले लोगों में कुछ ऐसे भी होते हैं जो रिश्ते निभाने नहीं आते, बल्कि रिश्तों का इस्तेमाल करने आते हैं।

इनकी दुनिया में बराबरी नाम की कोई जगह नहीं होती।
या तो ये ऊपर होते हैं, या सामने वाला नीचे।
खुद को ये राजा समझते हैं और बाक़ी सबको मोहरा।
जब तक लोग इनके काम के होते हैं, तब तक क़रीबी रहते हैं;
और जैसे ही काम निकल जाता है, वही लोग बोझ बन जाते हैं।

इसीलिए इन्हें पहचानना ज़रूरी है—
बाद में नहीं, समय रहते।

रूठने वाले
ये लोग अक्सर अचानक रूठ जाते हैं।
कभी किसी छोटी-सी बात पर, कभी बिल्कुल बिना वजह।
असल में इन्हें बुरा नहीं लगता; ये बस यह परखते हैं कि आप उन्हें कितनी अहमियत देते हैं।

अगर आप मनाने लगें, बार-बार सफ़ाई देने लगें,
तो इनके भीतर का अहंकार तृप्त हो जाता है।
और अगर आप शांति से दूरी बना लें,
तो कुछ ही दिनों में यही लोग खुद लौटकर बात शुरू कर देते हैं।
क्योंकि सच्चाई यह है कि आपसे दूरी इनके लिए नुकसान का सौदा होती है।

अनदेखा करने वाले
इनकी एक पहचानने लायक आदत होती है—
जवाब न देना।
आप सामने से अभिवादन करें, तो ये बस हल्का-सा सिर हिलाकर आगे बढ़ जाते हैं।

मक़सद साफ़ होता है—
यह जताना कि “हम बहुत व्यस्त हैं, बहुत महत्वपूर्ण हैं।”

लेकिन जिस दिन आप इनके काम आने लायक बन जाते हैं,
उसी दिन यही लोग खुद आगे बढ़कर अभिवादन करते दिखाई देते हैं।
सामने से ही नहीं,
पीछे से भी लोग आपको “अभिवादन” करते हुए सुनाई देने लगते हैं।

क्योंकि इन्हें यह बात अच्छी तरह याद रहती है
कि एक दिन इन्होंने आपको अनदेखा किया था—
बस उसे खुले तौर पर स्वीकार करना
इन्हें शोभा नहीं देता।

रिश्तेदारों की अमीरी पर अकड़ दिखाने वाले
इनका घमंड प्रायः अपनी कमाई का नहीं होता।
दोस्त अमीर है, रिश्तेदार अमीर है, ख़ानदान का नाम है—
बस वही इनकी पहचान बन जाती है।

खुद के घर में पर्दा गिरा हुआ हो,
नल से पानी टपकता हो,
लेकिन चर्चा मामा, चाचा, फूफा और उनके फ़ार्महाउस की ही होती है।

और जब इनके घर कोई शादी-ब्याह हो
और ये सब लोग वहाँ इकट्ठा हों,
तो हाल कुछ और ही हो जाता है।

ऐसे मौक़ों पर गर्दन ऐसी अकड़ती है
कि सामने के अलावा कुछ दिखता ही नहीं—
बगल में खड़ा इंसान भी अदृश्य हो जाता है।

अमीरी और रुतबे का दिखावा करने वाले
इन अहंकारी लोगों के भीतर एक स्थायी डर छिपा रहता है—
कि कहीं कोई इन्हें नुकसान न पहुँचा दे।

इस डर को ये अमीरी और रुतबे का जामा पहनाते हैं।
बंदूक रखते हैं—
सुरक्षा के लिए कम,
दिखावे के लिए ज़्यादा।

बच्चों को लेकर हर समय चिंता का नाटक करते रहते हैं—
कहीं कोई कुछ खिला न दे,
कहीं कोई कुछ कर न दे।

असल चिंता कम,
इतराना ज़्यादा।

खाने में डर दिखाने वाले
खाने के मामले में इन्हें हमेशा टोने-टोटके का डर लगा रहता है।
अगर आप इन्हें खाने को कुछ दें,
तो अदब से पहले आपसे खाने के लिए कहेंगे—
और कभी-कभी यह सवाल भी ज़रूर करेंगे—
“यह किसने दिया?”

सीधा-सा खाना भी इन्हें संदिग्ध लगता है।
वजह साफ़ है—
ये खुद टोने-टोटके जैसी गतिविधियों में विश्वास रखते हैं।

इसीलिए इन्हें भीतर-ही-भीतर यह डर लगा रहता है
कि कहीं कोई उनके साथ भी वही न कर दे,
जो वे दूसरों के साथ करते हैं।

दिखावे की दुनिया वाले
ये लोग कैफ़े में बड़े-बड़े ब्रांड के बर्गर और पिज़्ज़ा खाते हुए
तस्वीरें सोशल मीडिया पर डालते हैं।

चाहे मैकडॉनल्ड्स का जोकर ‘रोनाल्ड मैकडॉनल्ड’ हो
या वहाँ सजी आलीशान मेज़—
इनके आसपास खिंची तस्वीरें ज़रूर ली जाती हैं,
ताकि सोशल मीडिया पर अमीरी का ढिंढोरा पीटा जा सके।

दिल से ये भी जानते हैं
कि असली स्वाद स्ट्रीट फ़ूड में है,
लेकिन दिखावे का फ़ोटोशूट
इन्हीं जगहों पर सजता है।

दिलचस्पी छुपाने वाले
ऐसे लोग भी होते हैं जो बार-बार यह जताते हैं
कि उन्हें आपकी गाड़ी, घर, मकान
या उनमें सजी मनोरंजन की चीज़ों से
कोई दिलचस्पी नहीं है।

असल में दिलचस्पी पूरी होती है,
बस उसे ज़ाहिर करना इनके घमंड के ख़िलाफ़ पड़ता है।
इन्हें डर रहता है कि अगर किसी और की चीज़ की तारीफ़ कर दी,
तो उनकी अपनी शान में कमी आ जाएगी।

मान लीजिए आपके कमरे में सौ इंच की शानदार स्मार्ट टीवी है।
फ़िल्म देखने की पहल ये खुद करेंगे,
लेकिन कमरे में आते ही नज़र मोबाइल पर टिका लेंगे—
ताकि यह साबित हो सके
कि वे फ़िल्म देखने नहीं, बस यूँ ही आ गए हैं।

हक़ीक़त यह होती है कि
वे फ़िल्म देखने ही आए होते हैं,
बस मानना नहीं चाहते—
क्योंकि रुचि दिखाना इन्हें छोटा लगने लगता है।

एहसान भी स्वीकार न करने वाले
इस तरह के लोगों की एक और बहुत आम आदत होती है।
किसी चीज़ की ज़रूरत पड़े
या कोई काम करवाना हो,
तो ये आपसे ख़ुद ही कहते हैं।

आप पूरी नीयत से हाँ कर देते हैं।
और जब आप उनसे कहते हैं—
“ले जाइए, वह चीज़ तैयार है”
या
“हो गया आपका काम,”

तो जवाब कुछ ऐसा आता है—
“हाँ, मैं उनसे बोल देता हूँ”
या
“ठीक है, मैं उनसे कह देता हूँ।”

यानि ज़रूरत इन्हें थी,
मदद इन्होंने माँगी थी,
काम आपने किया—
लेकिन अहंकार ऐसा कि यह मानने को तैयार नहीं
कि इन्होंने किसी से कुछ लिया है।

भाषा को इस तरह घुमा दिया जाता है
कि ऐसा लगे जैसे
इन्होंने एहसान लिया नहीं,
बस व्यवस्था करा दी हो।

यह मदद लेने की झिझक नहीं है,
सीधा अहंकार है।
दूसरे की सहायता स्वीकार कर लेना
इन्हें यह बात अपनी शान के ख़िलाफ़ लगती है।

दूसरों को नीचा दिखाने वाले
खुद के घर में सालों तक कोई सुविधा न हो,
लेकिन आपके यहाँ आएँगे तो उसी में कमी ढूँढेंगे।

कल तक जिनके घर में एसी नहीं थी,
और बिना एसी के ज़िंदगी चल ही रही थी—
आज वही हर जगह कहते फिरते हैं,
“हम एसी के बिना रह ही नहीं सकते।”

और आपके घर पहुँचते ही तंज़ उछलेगा—
“आपकी एसी से पानी क्यों टपकता रहता है?”

मतलब साफ़ है—
आपकी चीज़ को नीचा दिखाने की आड़ में
ये यह भी एलान कर देते हैं
कि अब इनके घर में एसी लग चुकी है।

खुद को महत्वपूर्ण दिखाने वाले
इनकी सबसे आम आदत—
व्हाट्सऐप पर उत्तर न देना।

संदेश देख लिया जाएगा,
लेकिन जानबूझकर देर की जाएगी।
क्योंकि देर से जवाब देना
इन्हें महत्वपूर्ण महसूस कराता है।

और जैसे ही इन्हें आपसे कोई काम पड़ता है,
तुरंत उपलब्ध हो जाते हैं।

यह व्यस्तता नहीं,
सीधा घमंड है।

सस्ती तरकीब वाले
खुद को बड़ा दिखाने के लिए
ये लोग हर हद पार कर देते हैं—

गरीब बच्चे का मज़ाक उड़ाना,
किसी के हिंदी माध्यम में पढ़ने पर तंज़ कसना,
किसी के लंगड़ेपन,
हकलाने,
शक्ल या बीमारी तक पर हँसना।

इनके लिए कोई बड़ी बात नहीं;

क्योंकि इनके यहाँ
खुद को बड़ा दिखाने का
सबसे सस्ता,
सबसे आसान
और सबसे नीच तरीका
यही है कि
किसी और को
छोटा कर दिया जाए।

हर बात का ढिंढोरा पीटने वाले
अगर इन्हें किसी को यह बताना हो कि ये महाशय क्या करते हैं,
तो एक डर भी साथ चलता है—
कहीं लोग इन्हें बड़बोला न समझ लें।

इसलिए ये सीधे नहीं बोलते।
बात को घुमा-फिराकर रखते हैं,
इतनी सफ़ाई से कि
आप खुद ही समझ जाएँ
कि इनका पेशा क्या है।

बातों-बातों में,
कहीं से भी,
बेहद मासूमियत ओढ़कर
अपनी उपलब्धि ठूँस देना
इनकी पुरानी आदत होती है।

जैसे—
“कल मैंने कोचिंग में
अपने एक स्टूडेंट को डाँट दिया,
बेचारा रोने लगा…”

इतना कहना ही काफ़ी होता है—
यह घोषित करने के लिए
कि महाशय कोचिंग चलाते हैं।

आख़िरी बात
ऐसे लोग बहुत मीठे होते हैं,
इसीलिए पहचान में देर लगती है।
लेकिन एक बार पहचान हो जाए,
तो दूरी ही सबसे समझदारी भरा रास्ता है।

पहचानिए, दूरी बनाइए—
और खुद को बचाइए।

अपनी ही आवाज़ रिकॉर्डिंग में अजीब क्यों लगती है?

अपनी ही आवाज़ रिकॉर्डिंग में अजीब क्यों लगती है?

Ghibli-style illustration inspired by Shabbir Khan’s life and writings

कई लोगों के लिए यह एक अजीब और परेशान करने वाला अनुभव होता है।
जब वे सामान्य बातचीत में बोलते हैं, तो उन्हें अपनी आवाज़ बिल्कुल ठीक लगती है।
लेकिन जैसे ही वे अपनी ही रिकॉर्ड की हुई आवाज़ सुनते हैं,
उन्हें वही आवाज़ अजनबी, अटपटी या कभी-कभी बेहद खराब लगने लगती है।

कुछ लोगों के लिए यह सिर्फ़ हैरानी की बात होती है,
तो कुछ के लिए शर्म और झिझक का कारण बन जाती है।
इसका एक जीता-जागता उदाहरण मैंने इंस्टाग्राम की एक रील में देखा था,
जहाँ एक रील क्रिएटर मज़ाकिया लेकिन उदासी भरे अंदाज़ में कह रहा था—

“आज जब खुद की आवाज़ रिकॉर्डिंग में सुनी,
तो लगा कि अब तक जिन-जिन लोगों से मैंने बात की है,
उन सब से माफ़ी माँग लूँ।”

वह रील सिर्फ़ एक मज़ेदार क्लिप नहीं थी,
बल्कि उस एहसास की अभिव्यक्ति थी
जिससे बहुत से लोग भीतर ही भीतर गुज़रते हैं।
इसी वजह से अक्सर मन में यही सवाल उठता है—
क्या मेरी आवाज़ सच में ऐसी ही है?

इस सवाल का जवाब समझने के लिए यह जानना ज़रूरी है
कि हम अपनी आवाज़ को कैसे सुनते हैं,
और रिकॉर्डिंग में वही आवाज़ अलग क्यों लगती है।

1. यह समस्या असल में क्या है?

जब हम बोलते हैं, तो अपनी आवाज़ हमें बिल्कुल सामान्य लगती है।
लेकिन रिकॉर्डिंग सुनते समय वही आवाज़ अजीब लगने लगती है।

यह इसलिए नहीं होता कि आवाज़ खराब है,
बल्कि इसलिए कि दिमाग को वैसी आवाज़ सुनने की आदत नहीं होती।

यह एहसास पूरी तरह सामान्य है।
लगभग हर इंसान को अपनी रिकॉर्ड की हुई आवाज़
कभी न कभी अटपटी या “बुरी” लगती है।

2. हम अपनी आवाज़ कैसे सुनते हैं?

जब आप खुद बोलते हैं,
तो आप अपनी आवाज़ को दो रास्तों से सुनते हैं।

एक, हवा के ज़रिए—जिसे Air Conduction कहते हैं।
दूसरा, खोपड़ी की हड्डियों के ज़रिए—जिसे Bone Conduction कहा जाता है।

Bone conduction आपकी आवाज़ में
depth, bass और softness जोड़ देता है।
इसी वजह से जब आप खुद बोलते हैं,
तो आपकी आवाज़ आपको ज़्यादा भारी, साफ़ और बेहतर लगती है।

यही वह आवाज़ होती है,
जिसकी आपके दिमाग को बचपन से आदत पड़ चुकी होती है।

3. रिकॉर्डिंग में आवाज़ अलग क्यों लगती है?

रिकॉर्डिंग सुनते समय bone conduction शामिल नहीं होता।
आप अपनी आवाज़ को सिर्फ़ हवा के ज़रिए सुनते हैं।

इसी कारण रिकॉर्डिंग में आपकी आवाज़
थोड़ी पतली, ऊँची और कम भराव वाली लगती है।
वह “खुद जैसी” नहीं लगती।

यहीं पर दिमाग तुरंत प्रतिक्रिया देता है—
“ये मैं कैसे हो सकता हूँ?”

और इसी क्षण
अजीबपन और शर्म का एहसास शुरू हो जाता है।

4. रिकॉर्डिंग सुनकर शर्म क्यों आती है?

रिकॉर्डिंग में आपकी आवाज़
बिल्कुल सीधी और बिना किसी परत के सामने आती है।
जबकि आपका दिमाग सालों से
bone conduction के साथ मिली हुई आवाज़ सुनता आया है।

इन दोनों के बीच का फर्क
दिमाग “गलत” मान लेता है।
इसीलिए आपको लगता है—
मेरी आवाज़ खराब है।

जबकि सच्चाई यह है कि
आपकी आवाज़ ऐसी ही सबको सुनाई देती है,
और वह बिल्कुल सामान्य होती है।

5. इस एहसास से बाहर कैसे आया जाए?

ज़्यादातर लोग कुछ ही हफ्तों में
बार-बार अपनी आवाज़ सुनकर
इस एहसास के आदी हो जाते हैं।

धीरे-धीरे दिमाग
रिकॉर्डिंग वाली आवाज़ को भी
“अपनी आवाज़” मानने लगता है।

इस प्रक्रिया में मदद करता है—
थोड़ा अभ्यास,
थोड़ा धैर्य
और खुद को जज न करना।

6. एक अहम सच्चाई

आपकी आवाज़ में कोई कमी नहीं है।
बस आपके कानों ने आपकी असली आवाज़
कभी वैसे सुनी ही नहीं,
जैसे दुनिया सुनती है।

इसीलिए रिकॉर्डिंग वाली आवाज़
आपको अजनबी लगती है।

7. दूसरों की आवाज़ अजीब क्यों नहीं लगती?

क्योंकि दूसरों की आवाज़
हम हमेशा सिर्फ़ हवा के ज़रिए सुनते हैं।

उनकी लाइव और रिकॉर्डेड आवाज़
हमें लगभग एक-सी लगती है।
इसलिए दिमाग को कोई झटका नहीं लगता।

लेकिन अपनी आवाज़ के साथ
ऐसा नहीं होता।

8. शर्म आवाज़ की वजह से नहीं होती

अपनी आवाज़ पर जो शर्म महसूस होती है,
वह आवाज़ की गुणवत्ता की वजह से नहीं होती।

यह biology और psychology का मिला-जुला असर है।

अगर आपकी आवाज़ में सच में कोई बड़ी समस्या होती,
तो बातचीत में उसका असर ज़रूर दिखता।
लोग असहज होते,
या संवाद सहज रूप से नहीं चलता।

लेकिन ऐसा नहीं होता।

9. रिकॉर्डिंग आपकी पहचान नहीं है

रिकॉर्डिंग आपकी आवाज़ का
सिर्फ़ एक तकनीकी रूप होती है।

माइक की अपनी सीमाएँ होती हैं,
कमरे की echo आवाज़ को बदल देती है,
और मोबाइल माइक आवाज़ का भराव कम कर देता है।

इसलिए रिकॉर्डिंग में आवाज़
“कच्ची” लग सकती है।
लाइव में वही आवाज़
ज़्यादा असरदार होती है।

10. आख़िरी बात

अजीबपन आपकी आवाज़ में नहीं,
उसे सुनने के अनुभव में है।

जैसे शीशे और कैमरे में
एक ही चेहरा अलग दिखता है,
वैसे ही रिकॉर्डिंग में आपकी आवाज़ नई लगती है—
लेकिन दुनिया आपको इसी आवाज़ में सुनती है,
और उसे वह बिल्कुल सामान्य लगती है।

यही सबसे भरोसेमंद सच्चाई है।

फियर फाइल्स: डर की सच्ची तसवीरें

फियर फाइल्स: डर की सच्ची तसवीरें

Ghibli-style illustration inspired by Shabbir Khan’s life and writings

आज बात करते हैं ज़ी टीवी पर आने वाले शो ‘फियर फ़ाइल्स’ की। यह शो ‘ज़ी हॉरर शो’ और ‘अनहोनी’ जैसे सुपरहिट हॉरर धारावाहिकों के कई साल बाद, एक काफ़ी लंबे अंतराल के बाद आया था। और आते ही इसने लोगों के दिलों में वही पुरानी उमंग जगा दी थी—जैसी कभी उन दिनों ‘ज़ी हॉरर शो’ देखने पर जागती थी।

अगर ये शो हमारे बचपन या हमारी टीनएज का हिस्सा नहीं होते, तो शायद हमारे बचपन और हमारी टीनएज के पल इतने यादगार न बन पाते।

‘ज़ी हॉरर शो’ को रामसे ब्रदर्स लेकर आए थे—या यूँ कहें कि भारतीय टेलीविज़न और सिनेमा जगत में हॉरर जॉनर की नींव रखने वालों में वही थे।

काफ़ी अंतराल के बाद ज़ी टीवी एक बार फिर ऐसा शो लेकर आया था, जिसने दर्शकों की पसंद को गहराई से छू लिया था। ‘फियर फ़ाइल्स’ कई प्रोडक्शन कंपनियों के साझा प्रयास का नतीजा था, जिनमें मुख्य रूप से कॉन्टिलो पिक्चर्स, एस्सेल विज़न प्रोडक्शंस, बोधि ट्री मल्टीमीडिया, ड्रीमज़ इमेजेज, बीबीसी इंडिया और श्री जगन्नाथ एंटरटेनमेंट जैसी कंपनियाँ शामिल थीं।

यह शो भारत के अलग–अलग हिस्सों में घटित कुछ बेहद दिलचस्प और रहस्यमयी घटनाओं के पीछे की सच्चाई को उजागर करता था। यह एक मनोरंजक, फिल्मी और ज़बरदस्त ड्रामा–डॉक्यूमेंट्री सीरीज़ थी, जो उन लोगों की सच्ची कहानियों को जीवंत करती थी—जिन्होंने अलौकिक अनुभवों को खुद जिया था।

यही कारण था कि हर उम्र का व्यक्ति इस शो को शौक़ से देखा करता था। क्योंकि इसमें दिखाई जाने वाली कहानियाँ भारत के ही अलग–अलग इलाकों में घटित घटनाओं पर आधारित होती थीं, जिससे दर्शकों को लगता था कि डर कहीं दूर नहीं, बल्कि हमारे आसपास ही मौजूद है।

‘फियर फ़ाइल्स’ में फ़िल्माई गई कहानियों में यह देखने को मिलता था कि वे घटनाएँ वास्तविक जीवन की घटनाओं और शहरी किंवदंतियों पर आधारित होती थीं, जिन्हें टेलीविज़न के लिए थोड़ा फ़िल्मी और नाटकीय रूप दे दिया जाता था। और यही बात लोगों को सबसे ज़्यादा पसंद आती थी।

उन दिनों मैंने यह भी देखा था कि कई लोग इस शो के हर एपिसोड में सुनाई देने वाले मंत्र का उच्चारण ठीक उसी अंदाज़ में किया करते थे, जैसा उस एपिसोड में सुनने को मिलता था।

यह सब कुछ वैसा ही था—जैसे हम बचपन में ‘ज़ी हॉरर शो’ की शुरुआती डरावनी धुन को अक्सर गुनगुनाया करते थे।

‘ज़ी हॉरर शो’ से जुड़ी यादें मैंने सिर्फ़ आम लोगों से ही नहीं, बल्कि कई सेलेब्रिटीज़ के मुँह से भी सुनी हैं। हाल ही में श्रद्धा कपूर एक शो में बता रही थीं कि उनका भाई बचपन में उन्हें ‘ज़ी हॉरर शो’ की धुन से अक्सर डराया करता था। यह बताता है कि इन शोज़ ने किस तरह एक पूरी पीढ़ी की स्मृतियों में अपनी जगह बनाई थी।

लेकिन अगर सिर्फ़ ‘फियर फ़ाइल्स’ की बात करें, तो यह कहना ग़लत नहीं होगा कि इस शो ने हॉरर जॉनर को एक नया आयाम दिया। ख़ासकर इसलिए, क्योंकि शो के निर्माताओं और ज़ी टीवी का दावा था कि यह धारावाहिक वास्तविक घटनाओं से प्रेरित है।

वैसे ‘फियर फ़ाइल्स’ जैसा ही एक शो, जिसका नाम ‘ए हॉन्टिंग’ था, डिस्कवरी चैनल पर इससे काफ़ी पहले आया करता था। लेकिन वह शायद व्यापक दर्शक वर्ग तक नहीं पहुँच पाया था।

हो सकता है इसका कारण यह रहा हो कि भारतीय दर्शक भारतीय चैनल ज़्यादा देखते हैं, या फिर विदेशी घटनाओं पर आधारित डब किए गए शो उन्हें उतने पसंद नहीं आए। यह भी मुमकिन है कि किसी ने सोचा ही न हो कि डिस्कवरी जैसे चैनल पर भी इस तरह का शो आ सकता है, इसी कारण ज़्यादातर लोगों तक उस शो की पहुँच नहीं बन पाई।

ख़ैर, उस शो को देखने वाले भले ही शायद कम रहे हों, पर मुझे तो वह शो भी सच में बेहद पसंद था।

‘फियर फ़ाइल्स’ काफ़ी लंबे समय तक टेलीविज़न पर छाया रहा। मुझे ऐसा इसलिए लगता है क्योंकि मैंने यह शो बीच–बीच में, काफ़ी लंबे अंतराल के दौरान, अपने घर के अलग–अलग माहौल में अलग–अलग लोगों के साथ देखा था—कभी दोस्तों के साथ, कभी भाई–बहनों के साथ, कभी कज़िन्स के साथ, तो कभी किसी और रिश्तेदार के साथ।

‘फियर फ़ाइल्स’ देखने के लिए हमें वैसा इंतज़ार नहीं करना पड़ा, जैसा हम बचपन में ‘ज़ी हॉरर शो’ के लिए किया करते थे। शुरुआती दिनों में भले ही हम इसे टेलीविज़न पर देखते थे, लेकिन बाद में कंप्यूटर और यूट्यूब ने न बड़े–बड़े विज्ञापनों की परेशानी छोड़ी, न शो के ख़त्म होने का दुख। एक ही रात में ‘फियर फ़ाइल्स’ के दो–तीन एपिसोड देखना हम सबके लिए आम बात हो चुकी थी।

आज भी वे दिन याद आते हैं, जब उन रातों को जादुई बनाने के लिए हम अगले दिन सुबह से ही तैयारी में लग जाते थे। कभी पानी–टिक्की बनती, कभी बिरयानी, तो कभी खिचड़ा। और रात होते ही ‘फियर फ़ाइल्स’ लगाकर उन्हीं स्वादिष्ट व्यंजनों का मज़ा लिया जाता था।

कभी–कभी माहौल इतना जादुई और खुशनुमा हो जाता था कि उसे शब्दों में बाँध पाना मुश्किल है। जैसे वह दृश्य—जब मेरी बहन ‘फियर फ़ाइल्स’ देखते समय मटर पुलाव खाने में इतनी मशगूल हो गई थी कि एपिसोड के सबसे अहम पल पर भी उसका ध्यान स्क्रीन पर नहीं था।

मैंने जब उससे कहा कि “स्क्रीन पर भी ज़रा देख लो, वरना कहानी समझ नहीं आएगी,” तो वह हँसते हुए बोली—“भाई, तुमने पुलाव ही इतना टेस्टी बनाया है कि जल्दी–जल्दी खाने का मन हो रहा है।”

दरअसल, ‘फियर फ़ाइल्स’ देखते समय हम अपने कमरे की लाइट हमेशा बंद ही रखते थे—चाहे खाना खा रहे हों या नहीं। इसलिए अगर पुलाव में खड़े मसाले या टमाटर–हरी मिर्च अलग करनी होती, तो प्लेट में सचमुच सिर घुसाना पड़ता था।

एक बार का क़िस्सा तो आज भी चेहरे पर मुस्कान ले आता है। ‘फियर फ़ाइल्स’ का एक एपिसोड काफ़ी डरावना हो गया था—जो ‘छलावा’ नामक शक्तिशाली ताक़त पर आधारित था।

एपिसोड ख़त्म होने के बाद हम सब एक–दूसरे से कह रहे थे कि छत के ऊपर का गेट बंद कर आओ, लेकिन कोई भी इसके लिए राज़ी नहीं हो रहा था। डर का ऐसा माहौल बन गया था कि उस रात सोने से पहले कोई भी वह गेट बंद करने जाने की हिम्मत नहीं कर पा रहा था।

हँसी–मज़ाक के पल भी याद आते हैं। एक बार एक शराबी लड़खड़ाता हुआ हमारे घर के सामने वाले रास्ते से गुज़र रहा था। तभी बाहर खड़े एक लड़के ने शरारत में ‘फियर फ़ाइल्स’ के एपिसोड में आने वाला मंत्र उसके सामने पढ़ना शुरू कर दिया—

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥

वह शराबी जैसे ही कुछ बोलता, दूसरा लड़का उसके सामने खड़ा होकर फिर वही मंत्र पढ़ने लगता। वह शराबी भी हद से ज़्यादा पिया हुआ था। उसने बोतल को इस तरह पकड़ा हुआ था कि ढक्कन गायब था, और बोतल गिर न जाए—इसके लिए उसने उसमें उँगली टेढ़ी करके घुसा रखी थी। जब–जब वह कुछ अनाप–शनाप बोलता, कोई न कोई लड़का हास्य भरे अंदाज़ में फिर वही मंत्र दोहरा देता।

‘फियर फ़ाइल्स’ हमें उस दौर की याद दिलाता है जब डर भी सामूहिक अनुभव हुआ करता था। परिवार, दोस्त और रिश्तेदार एक कमरे में बैठकर उसे साथ–साथ जीते थे। यह सिर्फ़ एक टीवी शो नहीं, बल्कि बचपन और टीनएज की उन यादों का हिस्सा है जिनका रोमांच आज भी ज़िंदा है।

कुछ टीवी शो सिर्फ़ देखे नहीं जाते—जिए जाते हैं।

‘फियर फ़ाइल्स’ भी ऐसा ही एक शो था, जिसके साथ हमारी टीनएज की रातें डर, दोस्ती और खाने की खुशबू से भर जाया करती थीं।

सच कहूँ तो, ‘फियर फ़ाइल्स’ के बाद अगर मैंने किसी शो को दिल से पसंद किया, तो वह था—‘काल भैरव रहस्य’। मैं उसे हॉटस्टार पर देखा करता था। वह हॉरर शो नहीं था, लेकिन उसकी रहस्यमयी वाइब्स कई हॉरर शोज़ से भी ज़्यादा असरदार थीं।

हर एपिसोड इतना रोमांचक और सस्पेंस से भरा होता था कि पता ही नहीं चलता था कब एपिसोड ख़त्म हो गया। और जब ख़त्म होता, तो बेहद बुरा लगता था—क्योंकि वह हमेशा किसी बड़े राज़ के खुलने से ठीक पहले ही रुक जाता था।

एक समय ऐसा भी आया जब मैं एक कज़िन की शादी में करैरा गया हुआ था। शादी निपटाकर जब लौटा, तो ‘काल भैरव रहस्य’ के करीब सात–आठ अनदेखे एपिसोड जमा हो चुके थे।

जैसे ही मैं डबरा पहुँचा, उसी रात मैंने अपने लिए एक बड़ा सा कप चाय बनाई। साथ में तली मूँगफली के साथ पोहे भी बनाए। दरवाज़ा बंद किया, लाइट जलाई, बिस्तर पर ही दस्तरख़्वान बिछाया, रज़ाई ओढ़ी और चाय–पोहे का मज़ा लेते हुए एक–एक करके सारे अनदेखे एपिसोड देखता चला गया। क़सम से, वह अनुभव भी उन अनुभवों में से था जिन्हें शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता।

ख़ैर, यह लेख तो ‘फियर फ़ाइल्स’ के लिए था, लेकिन मैंने दूसरे शोज़ का ज़िक्र भी इसलिए किया, क्योंकि आगे उनके साथ भी लगभग वही हुआ जो ‘फियर फ़ाइल्स’ के साथ हुआ था।

काफ़ी समय बाद जब ‘काल भैरव रहस्य’ का दूसरा सीज़न आया, तो उसके एपिसोड मुझे बिल्कुल भी पसंद नहीं आए। वजह साफ़ थी—उसे भी ज़रूरत से ज़्यादा डरावना बना दिया गया था, बिना किसी मज़बूत और रोचक कहानी के। यह सब ठीक वैसा ही था, जैसा बाद के समय में ‘फियर फ़ाइल्स’ के कई एपिसोड्स में देखने को मिला।

और शायद यही कारण था कि उसके बाद मैंने टेलीविज़न की दुनिया को काफ़ी समय के लिए अलविदा कह दिया था।

आज जब कुछ देखने का मन होता है, तो मैं कुछ पुराना ही लगा लेता हूँ। आज के सीरियल्स देखने से बेहतर मुझे ‘गेस्ट इन द न्यूज़ रूम’, ‘आप की अदालत’ और पॉडकास्ट जैसे कार्यक्रम ज़्यादा पसंद आते हैं।

तीन दोस्त, तेज धूप और खट्टी-मीठी यादों से भरा एक रोमांचक सफ़र

तीन दोस्त, तेज धूप और खट्टी-मीठी यादों से भरा एक रोमांचक सफ़र

Ghibli-style illustration inspired by Shabbir Khan’s life and writings

ये उन दिनों की बात है, जब मैं टीनएज में था और डिस्कवरी चैनल पर आने वाला हॉरर शो ‘ए हॉण्टिंग’ बड़े शौक से देखा करता था। हमेशा की तरह गर्मियों की छुट्टियों में मेरी बुआओं के दो लड़के अपनी छुट्टियाँ बिताने हमारे घर डबरा आए हुए थे। एक दिन हम सब एक आम दिन की तरह अपने कमरे में थे, तभी मैंने उस शो के एक खास एपिसोड का ज़िक्र छेड़ा—और पता यह चला कि उन दोनों में से एक को भी यह शो पसंद था, और उसने भी ठीक वही एपिसोड देख रखा था।

उस एपिसोड में दिखाया गया था कि अमेरिका के एक शहर में कुछ टीनएजर्स रात को एक कमरे में बैठे कंप्यूटर पर अपने ही शहर के एक हॉन्टेड कब्रिस्तान के बारे में वेबसाइटों पर लिखे लोगों के अनुभव पढ़ रहे थे। लोगों का मानना था कि वहाँ उनके साथ कई अजीब-अजीब, असाधारण घटनाएँ हुई थीं, जो बेहद डरावनी थीं।

और जैसे हर टीनएज ग्रुप में एक अजीब-सी हिम्मत होती है, वैसी ही हिम्मत उस ग्रुप में भी थी। उन्होंने ठान लिया कि सच क्या है, यह खुद जाकर देखेंगे।

एक रात, हिम्मत, जिज्ञासा और थोड़ा-सा पागलपन लेकर वे लोग उस कब्रिस्तान पहुँच गए… और वहाँ उनके साथ वही सब हुआ—जिन कहानियों को वे अब तक सिर्फ़ डिजिटल दुनिया की अफ़वाहें समझ रहे थे।

जैसे ही दोस्तों का वह ग्रुप कब्रिस्तान के अंदर कदम रखता है, अचानक तेज़ हवा चलने लगती है और पेड़-पौधे हिलने लगते हैं, मानो किसी ने चेतावनी दे दी हो।

वो ग्रुप भी अजीब था—हर तरह के लोग शामिल थे: कोई बहादुर, कोई मज़ाकिया, कोई डरपोक, और एक ऐसा, जो हर चीज़ को वैज्ञानिक जिज्ञासा से देखता था।

इसके बाद दूसरी डरावनी घटना यह हुई कि उनमें से एक दोस्त अचानक ज़मीन पर गिर पड़ा। उसे ऐसा लगा जैसे वह किसी इंसानी हाथ से टकराकर गिरा हो, पर वहाँ उसे ऐसा कुछ दिखा ही नहीं। और इसी बीच, जैसे ही उसकी नज़र एक कब्र के शिलालेख पर गई, उसने पाया कि उस पर लिखे नाम बदलने लगे थे। उसने अपनी आँखें मलकर दोबारा देखा, तो भी वही पाया—कि नाम सच में बदल रहे थे।
यह ठीक वही घटना थी, जिसका ज़िक्र किसी शख्स ने वेबसाइट पर किया था।

इस घटना के बाद वह इतना डर गया कि उसके चेहरे का रंग उड़ गया—और उसी एक घटना ने उसे इतना डरा दिया कि वह तुरंत कब्रिस्तान से भागकर कार में जाकर बैठ गया।

बाकी लोग आगे बढ़ते रहे, और कुछ देर बाद उन्हें दूर बच्चों का एक समूह दिखाई दिया, जो एक-दूसरे का हाथ पकड़े खड़ा था—यह भी उन्हीं घटनाओं में से था, जिनका ज़िक्र किसी अन्य शख्स ने वेबसाइट पर किया था।

उन्होंने एक कब्र के बारे में यह भी पढ़ा था कि अगर उस कब्र को लगातार देखा जाए, तो वह बीच से फटती हुई दिखाई देती है—यानी बीच में दरार फैलती हुई दिखती है।
अंत में, सच जानने के लिए आगे जब वे उसी कब्र तक पहुँचे और उसे घूरकर देखने लगे, तो उनके साथ भी वही हुआ—जो वहाँ कई लोगों ने अनुभव किया था।

हर घटना के बाद उस ग्रुप का एक-एक सदस्य डरकर कब्रिस्तान से बाहर भागता गया। हर किसी की हिम्मत की अपनी एक सीमा थी—और वह सीमा वह कब्रिस्तान एक-एक कर तोड़ता जा रहा था।
उस कब्रिस्तान की घटनाएँ कोई भूतिया घटनाएँ नहीं, बल्कि किसी बड़ी शैतानी ताकत जैसी प्रतीत होती थीं।

बाकी बचे लोग आगे बढ़ते रहे। उनमें से एक चश्मिश लड़का था—बेहद जिज्ञासु, बेहद विचित्र; जैसे उसके लिए डर भी एक रिसर्च का हिस्सा हो। उसने अपने दोस्तों से साफ़ कह दिया था, “मैं तब तक नहीं जाऊँगा, जब तक मुझे हर उस घटना का सच पता न चल जाए, जिसके बारे में मैंने लोगों के अनुभव पढ़ते समय जाना था…”

अंत में सिर्फ़ वही चश्मिश लड़का बचा था। उसने एक खास कब्र के बारे में पढ़ा था कि अगर कोई उस पर उल्टी दिशा में मुँह करके बैठ जाए, तो पीछे से कोई अदृश्य ताकत उसे धक्का देती है। और जैसे किसी अनजानी ज़िद ने उसे घेर लिया हो—वह सच जानने के लिए बेहद डरता हुआ उसी कब्र पर जाकर बैठ गया।

कुछ देर सन्नाटा रहा… फिर अचानक एक ज़ोर का धक्का लगा। वह उछलकर आगे गिर पड़ा। उसके चेहरे पर ऐसा डर था कि उसके भीतर की सारी जिज्ञासा उसी क्षण मर चुकी थी। वह भी बाकी दोस्तों की तरह भागा—और जब वे सभी कार में जाकर बैठे, तो कार एक बार भी स्टार्ट नहीं हो रही थी, मानो कोई अदृश्य शक्ति, जो बेहद ताक़तवर थी, उन्हें वहीं रोक रही हो। लेकिन जैसे-तैसे वे उस रात वहाँ से निकल पाए।

अगले ही दिन, कॉलेज की कैंटीन में बैठे वे लोग डरते हुए पिछली रात की बातें कर रहे थे। वहीं पास में एक दूसरा टीनएजर्स का ग्रुप बैठा हुआ था। उनके कानों में जब यह कहानी पहुँची, तो वे धीमे-धीमे मुस्कुराने लगे। पहले तो उन्हें यह सब ड्रामा लगा, पर जिज्ञासा होती ही ऐसी है—इसीलिए अगले दिन उन्होंने भी वहाँ जाने का प्लान बना लिया।

और फिर, अगली रात उसी कब्रिस्तान के सामने पहुँचा एक नया ग्रुप—और उनके साथ भी वही सब हुआ, जो इससे पहले वाले ग्रुप के साथ हो चुका था।

उस दोपहर, जब मैं और बुआओं के लड़के उसी शो की बातें कर रहे थे, तो न जाने क्यों… हमारे मन में भी कहीं बाहर निकलकर किसी रोमांचक सफ़र पर जाने का विचार उठने लगा। शायद उस शो की कहानी कहने की शैली, शायद उस एपिसोड का माहौल, या शायद हमारी उम्र का वही पुराना उत्साह—कुछ तो ऐसा था, जिसने हम तीनों के भीतर हलचल मचा दी थी।
हमने एक-दूसरे को देखा और लगभग बिना बोले ही समझ गए कि आज घर पर बैठने का बिल्कुल मन नहीं है।

और इसी तरह, हम उठे, थोड़ी तैयारी की और घर के सामने से गुजरती रेलवे पटरियों की ओर चढ़कर आगे बढ़ने लगे—उन्हीं पटरियों के किनारे-किनारे खेरी नाम के गाँव की ओर।

उन दिनों दैनिक भास्कर में उस जगह के बारे में कुछ हॉरर किस्से छपते रहते थे—कभी किसी रात अजीब आवाज़ें सुनाई देना, कभी किसी राहगीर का पटरियों के पास किसी परछाईं को देखने का दावा, तो कभी लोगों का कहना कि वहाँ शाम के बाद कोई रुकता नहीं। यह उन दिनों की बात थी, जब मीडिया, टेलीविज़न और सिनेमा जगत डरावनी कहानियों के ज़रिए लोकप्रियता हासिल कर रहा था।
हम सच जानते थे, इसलिए बहुत कम डरते हुए हँसकर बोले,

“चलो देखते हैं… क्या पता कुछ दिलचस्प मिल जाए।”

भूत देखना तो सिर्फ़ बहाना था; हमें तो एक रोमांचक सफ़र पर निकलना था—थोड़ा डर, थोड़ा मज़ा… बस वही।

उन दिनों हमारे पास न मोबाइल था, न इंटरनेट।
बस तीन लड़के, एक गर्म दोपहर, और सामने फैली लंबी, सुनसान रेलवे लाइन—जिसके दोनों ओर सरसराती झाड़ियाँ खुद एक कहानी सुनाने को तैयार लग रही थीं।

रेलवे फाटक तक पहुँचकर हम तीनों बस यूँ ही आसपास देख रहे थे… तभी थोड़ी ही दूरी पर एक छोटी-सी दुकान नज़र आई—जिसमें पर्चून का सामान मिल रहा था। हमने वहाँ से कुछ आम पाचक जैसी खट्टी-मीठी गोलियाँ और चूरन, उस समय की मशहूर ‘राजू’ सुपारी, और बाकी छोटी-मोटी चीज़ें लीं। वहीं हमें अपने चाचा का एक दोस्त भी दिख गया। हमें लगा कि वह हमारे बारे में किसी से कुछ कह न दे, इसलिए हम वहाँ से तुरंत निकल लिए।

जेब में वह सारी चीज़ें लेकर हम वापस फाटक की ओर लौट ही रहे थे कि मेरी नज़र गेटमैन के कमरे पर जा टिकी… और कसम से, वैसा अद्भुत दृश्य मैंने ज़िंदगी में आज तक नहीं देखा।

वह कमरा… जिसकी दीवारें लाल-कत्थई रंग से पुती हुई थीं। कमरे के ठीक सामने एक खाली, सूखा और बिल्कुल साफ-सुथरा स्थान था—जो मिट्टी और गोबर से लीपा-पोता हुआ चमक रहा था। वह देहाती सफ़ाई किसी लकड़ी के फर्श से कम नहीं लग रही थी।

हम खट्टी-मीठी गोलियाँ और चूरन-सुपारी का मज़ा लेते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ते गए।

पहले तो बड़ा पुल आया—जहाँ हम कभी-कभार घूमने आते थे—लेकिन आज न जाने क्यों, साहस थोड़ा ज़्यादा था, या फिर मन ही कुछ और था। हम बड़े पुल से भी आगे निकल आए। यह पहली बार था जब हम इतने दूर पैदल आए थे। हवा भी बदलने लगी थी, और पेड़-पौधे, घास-वगैरह की खुशबू आने लगी थी।

कुछ ही देर में हमें सामने एक गाँव-जैसी छोटी-सी बस्ती दिखाई दी। हममें से किसी को पता नहीं था कि उस जगह का क्या नाम है—न कोई बोर्ड, न कोई संकेत; बस कच्चे-पक्के घर, कच्ची पगडंडियाँ, और धूप में खेलते कुछ बच्चे।

हमने वहाँ भी कुछ खाने की चीज़ें खरीदीं—लेकिन जैसे ही हम अंदर बढ़े, एक बात साफ़ महसूस हुई: उस बस्ती में हम जैसे नए लोगों का आना बहुत कम था, या कहें, लगभग न के बराबर था।

हम आगे बढ़ते गए और फिर दूसरे रास्ते से, जहाँ वह बस्ती खत्म होती थी, रेलवे पटरियों तक लौट आए।

अब सूरज थोड़ा झुकने लगा था, और वह लंबी रेलवे लाइन हमारे कदमों के साथ-साथ थकान और रोमांच—दोनों को बटोर रही थी। हम चलते रहे… और सच कहूँ तो, बिना किसी ख़ास मकसद के ही चलते रहे।

शाम धीरे-धीरे ढल रही थी। हवा ठंडी होने लगी थी। तभी पटरियों के बिल्कुल किनारे हमें एक पुराना, जर्जर, टूटा हुआ कमरा दिखाई दिया—न जाने किसके लिए बनाया गया था। वहाँ न कोई फाटक था, न कोई इंतज़ार करने की जगह… बस एक ऐसा ढांचा, जो धूप-बारिश झेलते-झेलते अपनी कहानी खुद जी चुका था।

हमने सोचा—“यार, यह क्या है? किसके लिए बनाया गया होगा?”

हम आगे बढ़ते गए… और अब अँधेरा उतरने लगा। दूर कुछ चरवाहे दिखाई दिए, जो अपनी भेड़-बकरियाँ लेकर वापस लौट रहे थे। पूरा माहौल बता रहा था कि सब अपने-अपने घरों की ओर जा रहे हैं… सिवाय हम तीन लोगों के।

अँधेरा गहराने लगा। चरवाहे लौट रहे थे—और हम तीनों ही ऐसे थे, जो घर नहीं लौट रहे थे।

शायद इसलिए कि वह टीनएज उम्र ही ऐसी होती है—जहाँ डर कम लगता है और दुनिया बड़ी लगती है; जहाँ पैरों में दर्द से पहले दिमाग में रोमांच जागता है।

हम इतना आगे निकल आए थे कि अब हमें खुद यह चिंता होने लगी थी कि वापसी में कितना समय लगेगा। रात काफ़ी हो चुकी थी, और झींगुरों, मेंढकों तथा न जाने किन-किन जीव-जंतुओं की आवाज़ें आने लगी थीं। आसपास के जानवरों की सिर्फ़ आँखें दिख रही थीं।

अँधेरा गहराता गया और, सच कहूँ तो, अब हमें भूत-प्रेत से नहीं, बल्कि गुंडे-बदमाशों से ज़्यादा डर लगने लगा था।

कई मिनट खामोश चलने के बाद हमने एक-दूसरे का चेहरा देखा—और बिना बोले ही समझ गए कि अब बस… अब हमें वापस लौटना चाहिए।

लंबी साँस लेकर, थोड़ी हिम्मत जुटाकर हमने वापसी की दिशा में कदम बढ़ाए—और वहीं से असली सफ़र शुरू हुआ।

रास्ते में दूर कुछ आवारा लोग पटरियों पर बैठे दिखाई दिए, जो बीड़ी या सिगरेट पी रहे थे। उस रात अँधेरा इतना घना था कि बीड़ी और सिगरेट की सिर्फ़ लाल-लाल चमक ही दिखाई दे रही थी।

हम अपनी खट्टी-मीठी, चटपटी चीज़ों के सहारे, मस्ती में बातें करते-करते कब रेलवे लाइन से होते हुए वापस अपने घर पहुँचे—हमें पता ही नहीं चला।

घर पहुँचते ही हम सब अपने-अपने कमरों में बिखर गए—और फिर वही पुरानी ज़िंदगी, वही रोज़मर्रा की कहानी शुरू हो गई।

पर जैसा कि तुम्हें पहले से पता होगा, मुझे बचपन से ही कहानियाँ पढ़ने और लिखने का बेहिसाब शौक है। और उसी शौक ने उस दिन के सफ़र को एक फ़िक्शन कहानी में बदल दिया—ऐसी कहानी, जो कुछ ही दिनों में पूरे खानदान में मशहूर हो गई।

कोई पूछता, “क्या सच में ऐसा हुआ था?”
कोई डाँट देता, “क्यों गए थे वहाँ?”
कोई बुआ कहतीं, “क्यों गए थे तुम लोग वहाँ? पता है, जब पुल बनते हैं तो बलि दी जाती है! उनकी रूह वहीं भटकती है!”
तो कोई उत्सुकता से कहता, “तुम खुद सुनाओ, क्या-क्या हुआ था?”

लोग रोमांचित थे—क्योंकि वह कहानी ही कुछ ऐसी थी।

मैंने सच में उस सफ़र को डरावनी कहानी में पिरो दिया था, ताकि हर कोई जानने को उत्सुक रहे कि क्या वाकई हमारे साथ ऐसा कुछ हुआ था।

सच तो यह था कि हमारे उस सफ़र में जो-जो घटा—क्या खरीदा, कहाँ गए, किससे मिले—वह सब बिल्कुल वैसा ही था… बस वापसी में मैंने उस एडवेंचर में थोड़ा-सा हॉरर का तड़का डाल दिया था। 😄

और उसी तड़के ने उस रोमांचक-से सफ़र को एक थ्रिलिंग फैंटेसी बना दिया—जिसे लिखकर मुझे खुद भी एक अजीब-सी खुशी, एक अलग-सा नशा मिला था। 😁

पर सच बात… जो चीज़ आज भी मन में सबसे ज़्यादा चमकती है, वह है—गेटमैन का कमरा। आज जब उस रोमांचक सफ़र के बारे में सोचता हूँ, तो सबसे ज़्यादा याद वही लाल-कत्थई छोटा-सा कमरा आता है—सामने मिट्टी से बना आँगन, कमरे के अंदर पुरानी खाट, धुंधला बिस्तर, दीवार पर टँगा कैलेंडर, और कमरे के बाहर चबूतरे के कोने में रखा हुआ वह काला रोटरी टेलीफोन—गोल घूमने वाला डायल—और उसके आसपास पसरा हुआ सन्नाटा… मानो हवा भी रुककर उसे देख रही हो।

ऐसा दृश्य मैंने फिर कभी नहीं देखा।

रेलवे पटरियों की गिट्टियाँ उस कमरे के सामने बने छोटे से चबूतरे को छूती थीं—ऐसा लगता था जैसे कमरा खुद पटरियों का हिस्सा हो, या पटरियाँ उस कमरे की रखवाली कर रही हों।

सच कहूँ, वह दृश्य सिर्फ़ एक नज़ारा नहीं था—वह ज़मीन की अपनी रौनक थी। और सच्ची रौनक कभी पैसों से नहीं खरीदी जा सकती… उसे तो बस कुदरत छिड़कती है, जिस पर इंसान हाथ फेरकर अपनी यादें बसा देता है।

ज़हर शब्दों में नहीं, इंसानों की आदतों में छिपा होता है — पहचानिए ऐसे चुभते हुए लोग।

ज़हर शब्दों में नहीं, इंसानों की आदतों में छिपा होता है — पहचानिए ऐसे चुभते हुए लोग।

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आज आपको रू-ब-रू कराता हूँ उस शख़्स से — जिसे यह ग़लतफ़हमी है कि अगर वह बीच-बीच में लोगों को नीचा दिखाता रहेगा, तो दुनिया उसे ‘सुपर स्मार्ट’ मानने लगेगी।
ऐसे नमूने हर मोहल्ले, हर दफ़्तर, हर व्हाट्सऐप ग्रुप में फलते-फूलते हैं। आगे पढ़ेंगे तो आप खुद बोल उठेंगे — ये तो मेरे आस-पास भी घूम रहा है!

इन लोगों ने न जाने कहाँ से यह गुरुमंत्र ले लिया कि हर बात में किसी की कमी निकाल देना, किसी भी तरह का कटाक्ष मार देना, और हर दूसरे वाक्य में एटीट्यूड उछाल देना ही “ऊपर उठने” का शॉर्टकट है।

चलिए, अब आपको इन “शॉर्टकट से चलने वाले” लोगों की अलग-अलग वैरायटी दिखाता हूँ:

वैरायटी नंबर 1 — ‘तारीफ़ में छुपा तीर रखने वाले’

यह वो शख़्स है जो आपसे बहुत मिठास से बात करेगा, लेकिन जैसे ही उसे महसूस होगा कि “अरे, मैं तो आज कोई कमी निकालने वाला तीर चला ही नहीं पाया,”
बस फिर उसी क्षण हमला कर दिया जाता है।

ये लोग जब किसी की तारीफ़ करते हैं, तो भी ऐसे अंदाज़ में कि मानो आपका हौसला बढ़ा रहे हों।
लहजा हमेशा ऐसा रहता है कि आसपास वालों को लगे — यह तारीफ़ मजबूरी में की जा रही है ताकि आप थोड़ा मोटिवेट हो जाएँ।

इससे होता यह है कि ये लोग अपने ऊपर लगे “कमियाँ निकालने वाले” टैग को थोड़ी देर के लिए धो लेते हैं —
कुछ-कुछ वैसा, जैसे किसी पर चप्पल फेंककर बाद में “सॉरी” कह देना।

वैरायटी नंबर 2 — ‘हर बात को सवाल बना देने वाले’

ये महाशय किसी की भी बात सुनते समय ‘हामी’ भी एक विशेष एटीट्यूड में भरते हैं।
आपने कुछ नया बताया? तुरंत जवाब आएगा:
“अच्छा? … अच्छा?”

वो भी ऐसा “अच्छा” नहीं जो उत्साह दिखाए —
बल्कि ऐसा जैसे पूछ रहे हों:
“सच में? तू मुझसे ज़्यादा जानता है?”

ये तब भी यही प्रतिक्रिया देंगे जब इन्हें कोई नई और काम की जानकारी मिल रही हो —
क्योंकि इन्हें डर होता है कि आसपास के लोगों को पता न चल जाए कि “अरे, यह बात तो इन्हें पता ही नहीं थी!”

इनके दूसरे एटीट्यूड शब्द —
“क्यों? … क्यों?”

वैरायटी नंबर 3 — ‘मौका मिले तो ज़हर बरसाने वाले’

ये महाशय गुस्सैल लोगों पर डंक नहीं चलाते — क्योंकि जवाब में डंडा भी चल सकता है।
लेकिन जलन तो जलन है; वह इनके भीतर लगातार उबलती रहती है।

जैसे ही अपने जैसे ज़हरीले समूह में शामिल होते हैं — और आपसे ज़रा-सी भी गलती हो जाए —
बस, इनके चेहरे पर शैतानी मुस्कान और नुकीले दाँत उभर आते हैं।

अगर किसी महफ़िल में आपकी काबिलियत की चर्चा हो रही हो —
तो आपकी गैरहाज़िरी का पूरा फ़ायदा उठाकर ये दिल खोलकर आपकी बुराई करेंगे।
जैसे ये लंबे समय से ज़हर रोके बैठे हों।

वैरायटी नंबर 4 — ‘अपनी कमी छिपाकर दूसरों पर हँसने वाले’

अगर ये मोटे हैं, तो किसी के दुबलेपन का मज़ाक उड़ाएँगे — ताकि किसी का ध्यान इनके मोटापे के भद्देपन पर न जाए!

अगर ये नाटे हैं, पर रंग थोड़ा उजला है, तो साँवले लोगों का मज़ाक उड़ाएँगे — ताकि किसी का ध्यान इनके ठिगनेपन पर न चला जाए।

इनका पूरा फ़ॉर्मूला बहुत सीधा है —
मोटे हैं → दुबलेपन का मज़ाक
गोरे हैं → साँवलेपन का मज़ाक
नाटे हैं → लंबाई का मज़ाक उड़ाने की बजाय दुबलेपन या साँवलेपन का मज़ाक

लंबे कद का मज़ाक ये दिल से उड़ा ही नहीं पाते — क्योंकि लंबाई तो इनकी दिली ख़्वाहिश है, या कहें कि इनका अधूरा सपना, जो सपना ही रह गया।
इसलिए उसकी जगह दुबलेपन या रंग पर तीर चला देते हैं।

वैरायटी नंबर 5 — ‘भीड़ में दूसरों को गिराने वाले’

इन लोगों को पब्लिक में किसी को असहज करना बड़ा आनंद देता है।
कभी किसी की नकली ज्वेलरी का मज़ाक उड़ाएँगे,
कभी किसी पुरानी चीज़ पर ताना मारेंगे,
कभी जानबूझकर ऐसा सवाल करेंगे —
“अरे, यह तो तुम्हारे पास होगा ना?”
जबकि इन्हें पहले ही पता होता है कि आपके पास वह चीज़ है ही नहीं।

और अगर आपके घर कोई पुरानी चीज़ है —
तो वे अपनी नयी चीज़ से उसकी तुलना करके महफ़िल में आपको नीचा दिखाने में क्षणभर नहीं लगाएँगे।

वैरायटी नंबर 6 — ‘जगह-जगह मज़ाक ढूँढने वाले’

आप अच्छे-भले बैठे हों, बातचीत किसी और दिशा में चल रही हो —
लेकिन ये महाशय अचानक आपका नाम निकालकर आपकी कमी जोड़ देंगे।

ऐसा इसलिए क्योंकि इन्हें आपकी वह बात बर्दाश्त नहीं होती कि लोग आपको पसंद करते हैं।
इन्हें लगता है कि अगर आपको लोग पसंद करेंगे, तो इनकी अपनी “महत्ता” कम हो जाएगी।

वैरायटी नंबर 7 — ‘अपनों को आसमान पर चढ़ाने वाले’

ये वो लोग हैं जो समारोहों में अपनी फैमिली की तारीफ़ ऐसे करेंगे कि लगे —
बाक़ी लोग तो बस बैकग्राउंड का हिस्सा हैं।

कोई पूछ ले —
“आपकी बेटी कौन-सी है?”
तुरंत जवाब —
“अरे, वो रही ना… जो सबसे अलग दिख रही है!”

ऐसे लोग बुरे हमेशा नहीं होते,
लेकिन इनकी बुरी आदत यही होती है कि अपने परिवार की तारीफ़ इस अंदाज़ में करते हैं
कि बाकी लोगों की बुराई अपने-आप हो जाती है।

वैरायटी नंबर 8 — ‘हर फंक्शन में दोष ढूँढने वाले’

किसी की शादी में जाएँगे, और लौटेंगे एक पूरी आलोचनात्मक रिपोर्ट के साथ —
यह गलत, वो गलत, यह होना चाहिए था, वो नहीं होना चाहिए था…
खाने से लेकर सजावट तक हर बात में कमी ढूँढ लेंगे।

उन्हें यह ज्ञान नहीं होता कि उनके घर भी जब कोई समारोह होगा —
तो कमियाँ होंगी।
लेकिन अपने मामले में आलोचना की बैटरी तुरंत डिस्चार्ज हो जाती है।

वैरायटी नंबर 9 — ‘सच सुनकर तुरंत आहत होने वाले’

अगर आपने इनके भले के लिए कोई सही बात कह दी — जो सलाह जैसी भी न हो —
तो ये ऐसे आहत होंगे जैसे आपने इनके आत्मसम्मान पर गहरी चोट कर दी हो।

हँसकर मान लें?
नहीं।

ये तुरंत आपकी किसी नयी कमी की खोज में लग जाएँगे, ताकि संतुलन बना रहे।

वैरायटी नंबर 10 — ‘तुलना के ज़रिए ज़हर फैलाने वाले’

यह वैरायटी तो सबसे “महान” होती है।
आप कोई प्रोडक्ट या सर्विस दे रहे हों —
तो ये आपके सामने ही किसी और की सर्विस की तारीफ़ करेंगे,
सिर्फ इसलिए कि आपको उसके मुक़ाबले में छोटा दिखा सकें।

ऐसे लोगों से दूरी ही ठीक है —
क्योंकि ये जब भी आपकी बुराई करेंगे, वह आपके काम की गुणवत्ता पर नहीं,
बल्कि अपनी ज़हर उगलने वाली आदत पर आधारित होगी।
भले ही आपका काम दूसरों से बेहतर हो — इनका पेशा ही ज़हर फैलाना है।

अंत में...

इन वैरायटी वालों की सबसे बड़ी गलतफ़हमी यही है कि किसी को नीचा दिखाने से उनका महत्व बढ़ जाएगा।
जबकि सच यह है —
हर इंसान अपने भीतर एक अलग कला लेकर पैदा होता है।

दुनिया कलाकारों से भरी है — हम उन्हें सुनते हैं, देखते हैं, सराहते हैं।

क्या उनकी चमक से हमारा नूर कम होता है?
नहीं।

तो फिर यह बेवजह हीही–होहो क्यों?

रुकी हुई सोच और भागती हुई शान: कुदरत का अनोखा फॉर्मूला

रुकी हुई सोच और भागती हुई शान: कुदरत का अनोखा फॉर्मूला

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आप लोगों ने अक्सर देखा होगा कि कुछ लोग अमीर तो बहुत होते हैं, पर दुनिया मानो उनके साथ कुछ ऐसा कर देती है कि उनका समझदारी वाला GPS जैसे सालों पहले ही स्विच ऑफ हो गया हो।

आपने ऐसे महापुरुष ज़रूर देखे होंगे—अमीरी का ऐसा नशा कि शादी-ब्याह में बंदूक लटकाकर पहुँचते हैं। सुरक्षा? अरे भाई, सुरक्षा तो बस एक बहाना है, असली मकसद तो ये बताना है कि दुनिया वालो! “देखो, मैं अमीर हूँ!”
उधर लोग सोच रहे होते हैं—“हाँ भाई, अमीर हो, पर सोच का क्या? वो भी कभी रिचार्ज कर लिया करो!”

किसी ने बहुत सटीक कहा है—कुदरत जब देती है, तो कुछ छीन भी लेती है। शायद इन्हें पैसे देते वक्त कुदरत ने बुद्धि का हिस्सा थोड़ा शॉर्ट-सर्किट कर दिया। वरना हराम की कमाई से अमीरी जमा लेने वालों में इतना दिखावा क्यों फूटता?
असली उद्योगपति तो दस सिक्योरिटी गार्ड के साथ भी बिना अट्टीट्यूड घूम लेते हैं—क्योंकि वे जानते हैं कि रुतबा जेब से नहीं, काम से बनता है।

अब ज़रा नज़र डालिए उन महफ़िल-प्रेमियों पर, जो इन दिखावेबाज़ों के इर्द-गिर्द ऐसे चक्कर काटते दिखाई देते हैं जैसे ग्रह अपने सूरज के चारों ओर घूमते हों। और जब ये दिखावेबाज़ बोलना शुरू करते हैं, तो टॉपिक भी क्या होते हैं—

बिज़नेस डील, महंगी कारें, ऊँची बिल्डिंगें… यानी वो सारी चीज़ें जिनके बिना शायद इनका आत्मविश्वास सुबह बिस्तर से उठने की हिम्मत ही न जुटा पाए।
इन दिखावेबाज़ों का एक स्पेशल “इडियट क्लब” भी होता है—कोट-पैंट में हमेशा तैयार, और अपने ही फुलाए हुए अट्टीट्यूड के गुब्बारे में तैरता हुआ।

पर सच कहूँ तो इनकी शक्लें और ये हरकतें सिर्फ़ उन्हें ही अच्छी लगती हैं जिनका IQ हमेशा के लिए छुट्टी पर चला गया हो। वरना बड़ी सोच वाले लोग तो इनके आस-पास खड़ा होना भी पसंद नहीं करते। और नतीजा ये होता है कि कभी-कभी ऊँची सोच वालों को इन दिखावेबाज़ों के चमचों से यह तक सुनना पड़ जाता है कि “अरे, वो तो इनसे जलते हैं!”

हाँ भाई, जलते हैं… अपनी किस्मत पर कि ऐसे लोगों की सोहबत में फँस गए!

छोड़िए इन साज-ठाठ की नक़ली चमक में डूबे टपोरियों को—अब आगे बढ़ते हैं।

अब उन महानुभावों की भी बात कर लें जो महंगे कुत्तों के साथ फिरंगियों की स्टाइल में सुबह-सबेरे निकलते हैं। चेन पकड़ने का उनका अंदाज़ बताता है कि वे वॉक पर नहीं, अपने “फ़र्जी रुआब” की शोभायात्रा पर निकले हैं—और रास्ते भर ऐसे संवाद करते हैं मानो कोई अदृश्य पत्रकार उनके शब्द नोट कर रहा हो।

बेशक, हर बंदूक वाला और कुत्ता पालने वाला गलत नहीं। कुछ को सच में शौक होता है, कुछ को जरूरत। मेरा निशाना सिर्फ उन पर है जो:

  • शो-ऑफ करते हैं,
  • स्टाइल मारते हैं,
  • इडियट जैसे लगते हैं,
  • महँगी चीजों के साथ फोटो खिंचवाने को ही जीवन का अंतिम लक्ष्य मानते हैं,
  • और अपनी “क्रिएटिविटी” का ऐसा दिखावा करते हैं कि देखने वाला बोले—“भाई, रहम कर दो!”

अब जमाना ऐसा है कि बच्चों का भी अट्टीट्यूड 5G स्पीड से आगे निकल चुका है।
कल ही एक 9–10 साल का बच्चा अपने दोस्त से अकड़ के साथ बोल रहा था—“मेरे पापा के पास इतने सारे क्रेडिट कार्ड हैं!”
थोड़ी देर बाद दूसरा बोला—“तू एडिटिंग क्या जाने? मेरी एडिटिंग देख के सिर पकड़ लेगा!”

अब जब बड़े ही बच्चों जैसा व्यवहार करें तो बच्चों से क्या शिकायत?

उन्हें कौन समझाए कि:

  • समझदारी क्रेडिट कार्ड गिनने में नहीं, सही कार्ड चुनने में है।
  • समझदारी दस सोशल अकाउंट में नहीं, एक अकाउंट को ठीक से संभालने में है।
  • समझदारी एडिटिंग सीख लेने में नहीं, बल्कि एडिटिंग की हर बारीकी को समझने में है।
  • समझदारी सिर्फ iPhone को सर्वोत्तम मानने में नहीं, बल्कि अन्य कंपनियों की काबिलियत को भी महत्व देने में है।
  • समझदारी महँगे कपड़ों में अकड़ दिखाने में नहीं, अपने व्यक्तित्व की गहराई जानने में है।

अब आते हैं उस तंज़ पर, जो डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम साहब ने बड़ी सटीकता से इन दिखावेबाज़ों पर साधा था। अपनी किताब में वे कुछ ऐसा लिखते हैं—

“मैंने फिरंगियों की तरह कुत्ते की चेन पकड़े सड़क पर टहल लगाते हुए, और किसी किनारे मिर्ज़ा ग़ालिब की तरह पान चबाते हुए लोग बहुत देखे हैं।”

मतलब साफ़ है—वह फिरंगी ही असली फिरंगी थे, और मिर्ज़ा ग़ालिब ही असली मिर्ज़ा ग़ालिब हैं। उनकी पहचान उनकी मौलिकता में थी; न उनकी जगह कोई और बन सकता है, न उनकी नकल करने वाले कभी उनकी सतह तक पहुँच सकते हैं।
वह वो थे… और तुम, तुम हो।

अब ग़ालिब की बात छिड़ ही गई है, तो चलिए एक और तरह की प्रवृत्ति पर भी नज़र डाल लेते हैं—फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि वहाँ पैसे के दिखावेबाज़ थे, और यहाँ ज्ञान के।

कुछ लोग ग़ालिब के शेरों का ऐसा पोस्टमॉर्टम कर रहे हैं कि अगर ग़ालिब ख़ुद होते, तो शायद कह देते—
“साहब, मेरी नहीं तो अपनी इज़्ज़त ही बचा लीजिए!”

ये लोग भाषण देते हैं, छात्रों को ज्ञान बाँटते हैं, और ग़ालिब के प्रति श्रद्धा भी दिखाते हैं—लेकिन शेरों के मतलब की बात आते ही उनका दिमाग अपनी ही दुनिया में चला जाता है, जहाँ असली अर्थ नहीं, बल्कि बस उनका गढ़ा हुआ मतलब चलता है।

उदाहरण के तौर पर ग़ालिब का यह मशहूर शेर—

हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है

आज के समय में प्रचलित अधिकांश व्याख्याओं के अनुसार, ग़ालिब इस शेर के ज़रिये यह कहना चाहते हैं कि—
उन्हें जन्नत की सच्चाई का बोध है; यानी जन्नत कोई ठोस, आँखों-देखी हक़ीक़त नहीं, बल्कि एक कल्पना, एक आस्था और एक तसल्ली भर है।
फिर भी, इस जीवन की कठिनाइयों के बीच, दिल को ढाढ़स देने और आशा बनाए रखने के लिए यह मान लेना कि जन्नत है—मन को अच्छा लगता है और सुकून देता है।

यानी कुछ लोगों का मानना है कि ग़ालिब इस शेर के माध्यम से यह कहना चाहते हैं कि सच जानने के बावजूद, दिल को ज़िंदा रखने के लिए कुछ ख़्वाब ज़रूरी होते हैं।

कुछ विद्वानों द्वारा इस शेर की ऐसी व्याख्या की जाती है, जिसमें ग़ालिब को सीधे-सीधे धर्म-विरोधी साबित कर दिया जाता है। इसी संदर्भ में कार्ल मार्क्स का उदाहरण भी दिया जाता है—यह कहा जाता है कि मार्क्स इस शेर से बहुत प्रभावित हुए, क्योंकि उन्हें लगा कि ग़ालिब भी उसी तरह सोचते हैं, जैसा वे स्वयं सोचते थे।

संभव है कि अंग्रेज़ी अनुवाद में यह शेर पढ़ते समय मार्क्स को ऐसा अर्थ दिखाई दिया हो। लेकिन सवाल यह है कि जो लोग ग़ालिब की ज़िंदगी और हिंदी-उर्दू की बारीकियों से परिचित हैं, वे भी उसी एकमात्र निष्कर्ष पर क्यों अटक जाते हैं?

मेरी समझ में इस शेर का एक और, उतना ही स्वाभाविक अर्थ भी आता है—

ग़ालिब यह नहीं कह रहे कि जन्नत झूठ है या काल्पनिक है।
वे यह कह रहे हैं कि—

मुझे जन्नत की हक़ीक़त मालूम है।
यानी जन्नत में सुकून है, आराम है, नेमतें हैं—सब कुछ है।

लेकिन मेरी मौजूदा ज़िंदगी—
मेरी आदतें, मेरी कमज़ोरियाँ, मेरा जीने का ढंग—
शायद उस जन्नत के पैमाने पर खरा न उतरे।

ऐसे में,
अभी जो थोड़ा-सा दिल बहलाने का सहारा है,
जो सोच है, जो तसल्ली है,
वही मेरे लिए काफ़ी है।

और इसी बिंदु पर दूसरी पंक्ति आती है—

“दिल के खुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है।”

यानी यह एक आत्म-स्वीकार है, न कि इंकार।

मेरा यह अनुमान भी पूरी तरह मुनासिब है कि—
यह शेर शायद तब कहा गया हो,
जब कोई उन्हें धार्मिक नसीहत दे रहा हो।

ग़ालिब अक्सर ऐसे मौकों पर सीधी टकराहट नहीं करते।
वे तंज़, तहज़ीब और गहराई से जवाब देते हैं।

यह शेर भी वैसा ही जवाब लगता है—

न बहस,
न इंकार,
न बग़ावत—

बस एक मुस्कुराता हुआ,
ख़ुद को पहचानता हुआ वाक्य।

अगर एक पंक्ति में अपनी व्याख्या को समेटूँ, तो—

ग़ालिब जन्नत पर शक नहीं कर रहे,
वे अपनी ज़िंदगी की सच्चाई को स्वीकार कर रहे हैं।

और यही बात इस शेर को
आज भी ज़िंदा, मानवीय और ईमानदार बनाती है।

इस शेर में धर्म को नकारने जैसा कुछ भी अनिवार्य रूप से नहीं है। मार्क्स का धर्म-विरोध उनके अपने दर्शन का हिस्सा था, लेकिन ग़ालिब को उसी चश्मे से देखना ज़रूरी नहीं।

दरअसल, ग़ालिब की शायरी में अक्सर यह बात दिखती है कि वे अगर धर्म के मुताबिक पूरी तरह न भी चल पा रहे हों, तो भी अपने आप को लेकर आत्म-स्वीकृति और कभी-कभी अफ़सोस ज़रूर ज़ाहिर करते हैं। उनके कुछ शेर देखिए—

ठिकाना क़ब्र है तेरा इबादत कुछ तो कर ‘ग़ालिब’
कहते हैं ख़ाली हाथ किसी के घर जाया नहीं करते

काबा किस मुँह से जाओगे ‘ग़ालिब’
शर्म तुमको मगर नहीं आती

बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या कुछ
कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई

अब ज़रा ठहरकर सोचिए—
क्या ये किसी ऐसे शख़्स के शेर लगते हैं, जो धर्म को संदेह की दृष्टि से देख रहा हो?
या फिर ये एक ऐसे इंसान की आवाज़ हैं, जो अपनी कमज़ोरियों को पहचानता है और उन्हें छिपाने की कोशिश नहीं करता?

अंत में बस इतना कहना है कि ये बातें किसी को नीचा दिखाने के लिए नहीं, बल्कि एक अलग दृष्टि रखने के इरादे से लिखी गई हैं।
अगर किसी को यह व्याख्या पसंद न आए, तो मेरा निवेदन बस इतना है—या तो लेख को एक बार फिर ठहरकर पढ़ लें, या फिर ग़ालिब का ही यह शेर पढ़कर दिल को थोड़ी तसल्ली दे लें—

‘ग़ालिब’ बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे

नियत खराब आदमी की उधारी और उसके बहुरंगी व्यवहार की दास्तान

नियत खराब आदमी की उधारी और उसके बहुरंगी व्यवहार की दास्तान

Ghibli-style illustration inspired by Shabbir Khan’s life and writings

आज मैं आपको नियत खराब आदमी की उधारी और उस उधारी के बाद उसके बहुरंगी व्यवहार की दास्तान सुनाता हूँ।

सबसे पहले तो ये महानुभाव पैसे माँगने आते हैं बड़ी ही कला के साथ—
चेहरे पर ऐसी उदासी जैसे दुनिया वहीं खत्म हो जाएगी,
या फिर “अर्जेंट पैसे चाहिए, तुरंत लौटा दूँगा”,
या “बस उससे लेकर सीधे तुझे दे दूँगा” वाला उनका मशहूर संवाद।

और फिर… समय गुजरता है, गुजरता है, और बस गुजरता ही रहता है। 😀

पहला व्यवहार:

अगर साहब आपके पड़ोस के हों, तो जैसे ही आपको देखते हैं, ऐसे खिसक जाते हैं जैसे चोरी करते पकड़े गए हों—
ये जाने बिना कि आपने उन्हें पहले ही पहचान लिया है।

ध्यान रहे—मैं किसी की मजबूरी या गरीबी का मज़ाक नहीं उड़ा रहा। सच्चाई ये है कि ज्यादातर समय उनके पास पैसे होते हैं, बस आपको लौटाने का मन नहीं होता।

दूसरा व्यवहार:

अगर जिसे आपने उधार दिया था, वह कभी आपका ग्राहक भी रह चुका हो, तो समझ लीजिए कि आपने उस पर एहसान करके अपने ही सिर घाटा बाँध लिया है।
आपने उसके बुरे समय में मदद की—उसके बदले धन्यवाद तो छोड़िए, वह आपसे ग्राहक-विक्रेता वाला रिश्ता ही खत्म कर देता है और कहीं और का ग्राहक बन जाता है, सिर्फ इसलिए कि कहीं आप उससे पुरानी उधारी के पैसे न माँग लें।

एहसान की परिभाषा शायद यही है—एहसान लो, और रिश्ता तोड़ दो।

तीसरा व्यवहार:

अगर आप लोगों की नज़रों में “बहुत अच्छे इंसान” हैं, तो उधार दिया हुआ पैसा माँगते हुए आपको ही शर्म आने लगती है।
अच्छा बनने की कीमत यही है—आपको ही डर लगता है कि कहीं कोई आपको गलत न समझ ले।

पर सामने वाले महानुभाव?
उन्हें तो पैसे लौटाने का मन ही नहीं होता—जैसे वो पैसे मानो शुरू से ही उनके ही थे।
आख़िरकार आपको कठोर होना ही पड़ता है।

और ऐसे वक्त में ये पंक्तियाँ कलेजे पर चोट करती हैं—

“कुछ इस तरह ज़िंदगी ने मुझसे सौदा किया,
तजुर्बे देकर मुझसे मेरी मासूमियत ले गया।”

चौथा व्यवहार:

ये वर्ग सबसे रोचक है।
इस वर्ग के लोग बड़े विश्वास से कहते हैं—“हाँ, हाँ… तेरे पैसे देने हैं, मैंने लिख लिए हैं।”

ओ भाई, कहाँ लिखे हैं? किस ग्रंथ में?
और अगर लिखे भी हैं तो क्या वो डायरी त्रेता युग की है जो अब मिल ही नहीं रही?

“मैंने लिख लिया है” बोलने वाले लोग नियत-खराब श्रेणी में उच्च सम्मान रखते हैं।

पाँचवाँ व्यवहार:

ये महानुभाव अक्सर नशे या जुए की दुनिया से गहरा नाता रखते हैं।
अगर आपका उधार लिया पैसा इन्होंने मौज-मस्ती में उड़ा दिया—तो थोड़ी-बहुत टोका-टाकी पर लौटाने की कोशिश कर भी देंगे।

लेकिन अगर वही पैसा जुए में हार गए—तो समझ लीजिए अब आपका पैसा वापस मिलना लगभग असंभव है।
और अगर देंगे भी तो आधा, जैसे हारने की आधी जिम्मेदारी आपकी रही हो!

छठा व्यवहार:

“अर्जेंट कॉल करनी है यार, शाम तक लौटा दूँगा”—
इस बहाने वे आपसे रिचार्ज करवा लेते हैं।

रिचार्ज हो जाता है।
उनकी बातें शुरू।
और आप?
आपसे उनकी बातचीत बंद।

फिर वे तभी बोलते हैं जब उन्हें यकीन हो जाए कि आप उनकी रिचार्ज वाली कहानी भुला चुके हैं।

सातवाँ व्यवहार:

कुछ लोग उधार तो ले लेते हैं, और थोड़े समय बाद उनके पास उधार चुकाने लायक पैसे भी आ जाते हैं,
लेकिन फिर भी वापस नहीं करते।
ऊपर से आपसे हमेशा के लिए संबंध ही खत्म कर देते हैं—
कहीं ऐसा न हो कि आप उनसे अपने पैसे माँगना शुरू कर दें!

ये तब ज़्यादा होता है जब रकम बड़ी हो।
नियत खराबी का ये वो स्तर है जहाँ मदद करने वाला ही गुनहगार बना दिया जाता है।

आठवाँ व्यवहार:

जब परेशान थे तब आपसे उधार लिया।
अब हालात सुधरे, तो आपके पैसे लौटाने के बजाय नए-नए ब्रांडेड सामान खरीदे जा रहे हैं।

आपके दिए पैसे?
उनकी नज़र में अब “आउटडेटेड” हो चुके हैं—उन्हें लौटाना उनकी शान के खिलाफ है।

नौवाँ व्यवहार:

अगर आप जानते हुए भी कि सामने वाले की नियत ठीक नहीं, और वे कोई वस्तु माँगें तो आप उसे उधार देने के बजाय फ्री में ही दे दें,
और वे उसे तुरंत मुस्कुराकर रख लें—

तो उनकी उस मुस्कान में छिपी नियत खराबी साफ दिखाई देती है।
और उन महानुभावों को लगता है कि अब आपकी दया के कारण उनकी दोस्ती आपसे हमेशा के लिए कायम रहेगी।

दसवाँ व्यवहार:

जब ये गरीब थे, तब आपसे उधार लिया और पैसे होने पर भी लौटाए नहीं।
अब वक्त बदल गया—साहब अमीर हो गए हैं,
लोगों पर खूब खर्च कर रहे हैं, बड़े दिल वाले कहलाते हैं।

पर सच ये है—अमीरी सिर्फ इनके भीतर छिपी नियत खराबी को ढक देती है।
वो तो वही हैं जो थे—बस कपड़े और अकड़ बदल गई।

और भी कई पहचानें हैं ऐसे महानुभावों की—

  • आप उधार के पैसे माफ कर दें और वे हल्की-सी औपचारिक मनाही के बाद मुस्कुरा कर चुप हो जाएँ।
  • आप कोई चीज़ फ्री दे दें और वे दो सेकंड की दिखावटी मनाही के बाद उसे खुशी से रख लें।
  • आप उधार माँगना बंद कर दें और वे ऐसे व्यवहार करें जैसे उधारी का मामला कभी हुआ ही नहीं।
  • आप उधार दें और वे लौटाने के बजाय अचानक मौन-व्रत धारण कर लें।
  • आप किसी काउंटर पर भुगतान करने लगें, और महानुभाव ठीक उसी समय वहाँ से गायब हो जाएँ।

निष्कर्ष:

तो ये थी नियत खराब आदमी की उधारी और उसके बहुरूपी व्यवहार की दास्तान।

अगर आपको ऐसे लोग सच में मिले हैं, तो मेरी मानिए—दूरी ही सबसे बड़ा इलाज है।
दुनिया में अच्छे लोग भी हैं, भले कम हों।
और अगर ऐसे लोग आसपास न मिलें, तो अकेले या अपने परिवार के साथ रहना ही बेहतर है।

क्योंकि मेरा मानना है—
नियत खराब आदमी के साथ रहना किसी मुर्दे के साथ रहने जैसा है।
मुर्दा दिल आदमी अगर मजबूरी में आप पर खर्च भी कर दे,
तो मन में सिर्फ नेगेटिव वाइब्स ही छोड़ता है।

बिरयानी सिर्फ़ नॉनवेज? क्या वाक़ई वेज़ बिरयानी जैसी कोई चीज़ नहीं होती?

बिरयानी सिर्फ़ नॉनवेज? क्या वाक़ई वेज़ बिरयानी जैसी कोई चीज़ नहीं होती?

Ghibli-style illustration inspired by Shabbir Khan’s life and writings

आजकल सोशल मीडिया पर एक ख़ास तरह की वीडियो बहुत वायरल हो रही हैं, जिनमें लोग बड़े आत्मविश्वास के साथ कहते नज़र आ रहे हैं—
“वेज़ बिरयानी जैसी कोई चीज़ होती ही नहीं!”
बड़े-बड़े शेफ़ और अब तो कुछ सेलेब्रिटीज़ भी यही लाइन दोहराते दिख रहे हैं।

मुझे सबसे ज़्यादा हैरानी इस बात की होती है कि दुनिया में “भेड़चाल” का कितना बड़ा दबदबा है।
किसी एक ने कह दिया कि “वेज़ बिरयानी जैसी कोई चीज़ नहीं होती”, तो अब आलम यह है कि हर कोई वही बात आगे बढ़ाता जा रहा है।

कोई अपना दिमाग लगाना ज़रूरी ही नहीं समझता।
जो शेफ़ कह रहे हैं, लोग वही सच मान लेते हैं—क्योंकि वे बड़े पद पर होते हैं, इसलिए जो उन्होंने कहा वही अंतिम सत्य मान लिया जाता है।

“वेज़ बिरयानी जैसी कोई चीज़ नहीं होती, वह असल में वेज पुलाव है” — इस तरह का वाक्य लोग अक्सर इसलिए दोहराते हैं, ताकि यह जताया जा सके कि नॉनवेज ही असली ‘किंग’ होता है; वेज उसकी बराबरी कभी नहीं कर सकता।

नॉनवेज का गुणगान करते हुए सोशल मीडिया पर एक पॉडकास्ट क्लिप भी बहुत वायरल हो रही है, जिसमें पुनीत सिंह, शेफ़ अनिरुद्ध जी से पूछते नज़र आते हैं—
“क्या वाकई वेज़ बिरयानी नाम की कोई चीज़ होती है?”

इस पर शेफ़ अनिरुद्ध जी जवाब देते हुए कहते हैं—

“अगर हम ऑथेंटिसिटी पर जाएँ, तो असल में न बिरयानी मटन की है, न बिरयानी चिकन की।
असल जो बिरयानी है, वह है ‘बड़े’ की—यानी उस दौर में जिस बड़े जानवर के मांस का इस्तेमाल होता था, जैसे बीफ़ या कहें बफ़।

पहले ज़माने में, जब बिरयानी और निहारी की शुरुआत हुई थी, तब यह सैनिकों के लिए बल्क में बनाई जाती थी।
जब हुमायूँ अपने रकाबदारों या कहें खानसामों के साथ आया करता था, तो उसके साथ विशाल लश्कर भी होते थे।
उसके अपने खानसामे भी होते थे, और इतने बड़े समूह के लिए अलग-अलग खाना बन पाना संभव नहीं था।”

क़िस्सा और ऐतिहासिक संदर्भ बताने के बाद, शेफ़ अनिरुद्ध जी अंत में यही कहते दिखाई पड़ते हैं—

“बिरयानी वेज नहीं हो सकती—वह असल में पुलाव है।”

ख़ैर, यह उनका तर्क है।
लेकिन मेरा तर्क यह कहता है कि यदि इतिहास को ही देखा जाए, तो हमें स्पष्ट पता चलता है कि समोसा मूल रूप से ईरान का व्यंजन माना जाता है।
ऐतिहासिक दस्तावेज़ बताते हैं कि यह “संबुसाक” नाम से जाना जाता था—एक छोटा, कीमा-भरा पेस्ट्री।

भारत में यह मध्य एशियाई व्यापारियों के माध्यम से पहुँचा, और यहाँ के स्थानीय मसालों व आलू के साथ मिलकर आज का लोकप्रिय भारतीय समोसा बन गया।

अब सोचिए—इसी तर्क के आधार पर अगर कोई कहे—
“आलू के समोसे जैसी कोई चीज़ नहीं होती, असल जो समोसा है, वह है ‘कीमे’ का।”

तो क्या यह तर्क सही लगेगा?

इसी तरह शेफ़ रणवीर बराड़ भी कहते दिखते हैं कि वेज़ बिरयानी नाम की कोई चीज़ नहीं होती, बाक़ी “दिल बहलाने को ग़ालिब ख़याल अच्छा है” वाला सीन है।
उनका तर्क है कि बिरयानी को पकने में जो वक़्त लगता है, वही उसका फ़्लेवर बनाता है—सब्ज़ियाँ जल्दी पक जाती हैं; इसलिए वह गहराई वाला स्वाद विकसित नहीं हो पाता।

लेकिन मैं इस तर्क से भी सहमत नहीं हूँ, क्योंकि बिरयानी एक–दो तरीक़ों से नहीं, बल्कि हज़ार तरीक़ों से बनाई जाती है।

मैंने अक्सर देखा है कि झाँसी के भटियारे गोश्त, मसालों और लहसुन–प्याज़ को पानी में उबालकर उसकी यख़नी तैयार करते हैं,
और फिर साधे पानी की बजाय उसी यख़नी को चावल पकाने में इस्तेमाल करते हैं—शुरुआत से लेकर अंत तक बिरयानी बनने में घंटों लग जाते हैं।

वहीं हमारे डबरा से कुछ ही दूर ग्वालियर के मशहूर “रहूप भाई” कुछ ही समय में बिरयानी तैयार कर देते हैं,
और स्वाद ऐसा कि आसपास के शहरों से भी लोग उनकी बिरयानी चखने आते हैं।

वह वेज़ बिरयानी भी बनाते हैं—प्रोसेस बिल्कुल वही, सिर्फ मीट की जगह उबले हुए सोया चंक्स और काबुली चने डाल दिए जाते हैं।
टेस्ट? वही चटपटापन, वही तीखापन, वही खुशबू, वही ज़ायका!

तो क्या यह कहना सही होगा कि “बिरयानी टाइम लेती है, इसलिए वेज़ बिरयानी जैसी कोई चीज़ नहीं हो सकती”?
बिल्कुल नहीं।

एक और मज़ेदार हाल यह है कि कुछ लोग अगर बिरयानी को अपनी शैली से अलग तरीके में बनते देख लें, तो तुरंत सवाल उठाने लगते हैं।

आजकल एक वीडियो बहुत वायरल है, जिसमें एक लेडी मज़ाकिया अंदाज़ में पूछती दिख रही है—
“हैदराबादी लोग बिरयानी में टमाटर कायको डालते?”

जवाब सुनकर लगा मानो टमाटर डालना बिरयानी का अपमान मान लिया गया हो।
साथ ही लेडी को यह नसीहत भी दी जाती है—
“आप लखनऊ में हैदराबादी बिरयानी मत खाइए, आप हैदराबाद आकर हैदराबादी बिरयानी खाइए।”

इस जवाब से एक और गलतफ़हमी पैदा होती है—कि बिरयानी का स्वाद जगह पर निर्भर करता है।
लेकिन वास्तविकता यह है कि स्वाद जगह से नहीं, बनानेवाले की कला से आता है।

अगर बनानेवाले में कला है, तो—

  • वेज़ बिरयानी जैसी भी चीज़ होती है,
  • जल्दी बनने वाली बिरयानी भी लज़ीज़ हो सकती है,
  • और वह बिरयानी भी लोगों की पसंदीदा हो सकती है जिसमें टमाटर डाला गया हो।

और जैसा मैंने पहले कहा—स्वाद जगह से नहीं, बनानेवाले की कला से आता है।

इसका जीता-जागता उदाहरण यह है कि मैंने दिल्ली की जामा मस्जिद की मुख्य सड़क—जो स्ट्रीट फूड के मामले में काफ़ी मशहूर है—वहाँ की बिरयानी खाई है।
कसम से, उस जैसी बेस्वाद बिरयानी मैंने कहीं नहीं खाई।

तो क्या इसका मतलब यह है कि दिल्ली में अच्छी बिरयानी नहीं बनती?
अरे बनती है भाई, बिल्कुल बनती है!

मेरा कहने का मतलब सिर्फ़ इतना है कि स्वाद शहर तय नहीं करता; स्वाद इंसान की कला तय करती है।

क्या पता—हमारे डबरा में ही कोई ऐसा उस्ताद छिपा बैठा हो,
जिसके हाथ की बिरयानी का कोई जवाब ही न हो। 🙂