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वो बचपन की यादें, वो मस्ती भरे दिन...

वो बचपन के दिन भी क्या खूब थे — ना दोस्ती का मतलब पता था, ना मतलब की दोस्ती थी। मेरा बचपन मेरी ज़िंदगी का सबसे प्यारा हिस्सा था। जब भी मैं ...

वो बचपन की यादें, वो मस्ती भरे दिन...

वो बचपन की यादें, वो मस्ती भरे दिन...

Ghibli-style illustration inspired by Shabbir Khan’s life and writings

वो बचपन के दिन भी क्या खूब थे —
ना दोस्ती का मतलब पता था, ना मतलब की दोस्ती थी।

मेरा बचपन मेरी ज़िंदगी का सबसे प्यारा हिस्सा था। जब भी मैं उन दिनों को याद करता हूँ, आँखों में नमी और चेहरे पर मुस्कान आ जाती है।
हमारे मोहल्ले में ढेर सारे बच्चे थे — अलग-अलग उम्र के, मगर दिल से सब एक जैसे।
कभी क्रिकेट, कभी छुपन-छुपाई, कभी कबड्डी, तो कभी चोर-सिपाही।
हर दिन नया खेल, हर दिन नई मस्ती।

खेलते-खेलते कभी अम्मा की आवाज़ सुनाई देती —
“हे बेर बिरचुन बेर...”
हम दौड़ते हुए पूछते, “अम्मा, बेर पत्ते में दोगी न?”
अगर अम्मा कहतीं, “हाँ बेटा,”
तो हम खुशी से लेकर आते।
पर अगर कहतीं, “नहीं बेटा, कागज़ में देंगे,”
तो हम नाक-भौं सिकोड़कर बोलते,
“फिर नहीं चाहिए!”
क्योंकि उस ताज़े हरे पत्ते की सौंधी खुशबू में बेर खाने का मज़ा ही कुछ और था, जो कागज़ में कहाँ।

थोड़ी देर बाद गली में गूंजती दूसरी आवाज़ —
“गुलाब लच्छी, खाने में अच्छी...”
और बच्चे मस्ती में चिल्लाते —
“गुलाब लच्छी, काँटे में मच्छी!”
...फिर खिलखिलाते हुए भाग जाते।

पानी टिक्की वाले का ठेला,
कुल्फी की टन-टन घंटी,
और आइसक्रीम वाले की भोंपू —
मोहल्ले की ख़ुशी के ये छोटे-छोटे पल
हर दिन में रंग भर देते थे।

उन दिनों मोहल्ले की दुकानों में
खाने-पीने और खेलने की चीज़ें भी क्या ही ज़बरदस्त मिलती थीं!

जैसे —
“ढूंढ़ते रह जाओगे” चूरन —
स्वाद ऐसा कि ज़ुबान खुद कहे,
“एक और ले ले, भाई!”

और वो डोरी से फिरने वाली मीठी घिरनी —
पिपरमिंट फ्लेवर वाली!

खेलते-खेलते जब टूट जाए,
तो चुपचाप खा लेने का भी
अपना ही अलग मज़ा था।

क्या ही ख़ूब दिन थे वो!

शाम होते ही बच्चे इकट्ठा होकर भूतों की कहानियाँ सुनते थे।
कोई डरता, कोई हँसता, पर सब साथ में बैठकर एक-दूसरे की आँखों में डर ढूँढते थे।
वो अनुभव आज भी दिल को सुकून देता है।

घर लौटते ही गरमा-गरम खाना खाते हुए ‘शाकालाका बूम बूम’ देखना —
उसका भी एक अलग ही मज़ा था।

और फिर, उस शो के बाद वो जानी-पहचानी आवाज़ गूंजती थी —
“चाहत के सफर में... दिलों के हौसले देखो...”

दादी को बहुत पसंद था ये सीरियल...
कभी-कभी मैं भी देख लिया करता था... 😁
और फिर दोपहर में —
“जीवन कर लेता है सिंगार... सच है न, कुमकुम से...”

दोपहर के वो घंटे सिर्फ़ सीरियल्स के नहीं होते थे —
उनके बीच में आने वाले ऐड्स भी कम कमाल के नहीं होते थे।

जैसे वो साबुन का ऐड, जो कुछ ज़्यादा ही बार आता था —

नीमा रोज़, नीमा रोज़, रोज़-रोज़ नीमा रोज़,
गुलाबों की ख़ुशबू रोज़-रोज़, रेशम-सी त्वचा रोज़-रोज़,
नीमा रोज़ बदन में एक जादू जगाए रोज़!

और फिर आता था वो बोरोप्लस का ऐड —
जिसमें अमिताभ बच्चन जी पंडित जी के वेश में नज़र आते थे —

मंगलम् भगवान विष्णुः,
मंगलम् गरूणध्वजः,
मंगलम् पुण्डरीकाक्षः,
मंगलाय तनो हरिः॥

“आता नहीं है दाढ़ी बनाना,
कटे–जले तो बोरोप्लस लगाना!”

“बहुत हो रही है जलन...
ये लीजिए बोरोप्लस मरहम!”

“माताजी, पूजा के वक़्त आओ!”

“ऐ! बच्चे को चुप कराओ —
नैपी रैश पर बोरोप्लस लगाओ!”

“माता को बुलाइए, श्रीमान!”
“हाँ-हाँ, वही रूखी त्वचा है जिनकी पहचान!”
“आइए देवीजी —
बोरोप्लस लाए त्वचा में जान!”

“एड़ियाँ हैं फटी–फटी...
बोरोप्लस लगाया करो, बेटी!”

“दूधो, नहाओ, पूतो, फलो —
फटे होंठ तो बोरोप्लस ले लो!”

“आयुष्मान भव!”

हर गली, हर नुक्कड़ पर,
कभी न कभी ये ऐड्स सुनाई दे ही जाते थे।

हमारे मोहल्ले में दिन भर मस्ती होती थी।

ना मोबाइल, ना इंटरनेट, बस एक पुरानी साइकिल, एक गेंद और जिगरी दोस्त।
शाम होते ही सब मैदान की ओर दौड़ लगाते।
चप्पल पहनकर खेलते, कभी पैर में काँटा चुभ जाए तो भी परवाह नहीं।
थोड़ा लड़खड़ाते, फिर हँसते हुए खेल में जुट जाते।

वो दिन जब चुपचाप सुधीर जी की दुकान पहुँच जाते थे, बिना बताए घर से निकलना और वीडियो गेम्स में खो जाना —
‘कॉन्ट्रा’, ‘मारियो’, ‘रोड फाइटर’ — नाम सुनते ही दिल मुस्कुरा उठता है!

एक बार दो दोस्त थे, जेब में सिर्फ़ एक रुपया। सुधीर जी दुकान पर नहीं थे, उनकी माँ मिलीं।
उन्होंने हमें अंदर बुलाया, पंखा चलाया और बिठा लिया।

हम थोड़े शर्मिंदा थे — क्योंकि जेब में सिर्फ़ एक रुपया था, पर शायद उन्हें लगा कि हम सुधीर जी के बड़े ग्राहक हैं। 😁
थोड़ी देर बाद जब सुधीर जी आए, तो जैसे चैन की साँस मिली।
हमने “अलादीन” शुरू किया — लेकिन एक खाई थी जो पार ही नहीं हो रही थी।
सुधीर जी ने समझाया कि कैसे पार होगी, पर तब तक टाइम खत्म हो गया।
उन्होंने मुस्कुराकर कहा —
“चलो, दस मिनट और खेल लो।”
हमने बिना देर किए “अलादीन” हटा दिया, और फिर “सुपर मारियो” लगा लिया। 😁

ये गेम्स बस खेलने के लिए नहीं थे, उनकी धुनें गुनगुनाना और हर कैरेक्टर में मज़ाक ढूँढना भी मज़ेदार था।

जब खुद का वीडियो गेम आया, लगा जैसे दुनिया हमारी हो गई।
नई कैसेट्स चाहिए हों या रिमोट खराब हो जाए —
कभी लक्ष्मीचंद मार्केट, तो कभी गुरु नानक मार्केट जाना भी किसी एडवेंचर से कम नहीं था!

कॉमिक्स का भी अपना नशा था —
चाचा चौधरी, बिल्लू, पिंकी — किराए पर लेकर पढ़ते, समय से पहले लौटा देते ताकि अगली बार फिर मिल जाए।
उन रंग-बिरंगे पन्नों और उनकी खुशबू की बात ही कुछ और थी।

याद है, बड़े भाई ने मम्मी से पैसे लेकर ढेर सारी कॉमिक्स खरीदने की योजना बनाई थी।
बड़े आत्मविश्वास से बोले —
“किराए की कॉमिक्स का खर्चा बच जाएगा, और बाकी लोग हमसे कॉमिक्स लेकर पढ़ेंगे...”
पर वे सारी कॉमिक्स बस हमारे मनोरंजन का हिस्सा बनकर रह गईं।

और यही “फ्री सेवा” वाला दौर सबसे सुनहरा था।
जो भी दोस्त आता, अपनी पसंदीदा कॉमिक्स उठाकर पढ़ने लगता।
कॉमिक्स में तरह-तरह की कहानियाँ होती थीं — कुछ रहस्य और सस्पेंस से भरी, कुछ ज़बरदस्त लड़ाई के साथ। मगर मुझे तो चाचा चौधरी, पिंकी, बिल्लू ही सबसे प्यारे लगते थे। 🤗

हम कहानियाँ नहीं पढ़ते थे, उनमें जीते थे।

जब छोटे थे, ज़ी हॉरर शो देखा करते थे।
हर एपिसोड के बाद दिल डरता था,
पर मोहल्ले में उसी डर की चर्चा सबसे मज़ेदार लगती थी।

एक रात हमारे ग्रुप के एक लड़के ने बताया —
“एक बार मेरे पापा ने मुझे बताया था कि अपने घर से कुछ ही दूरी पर जो धर्मशाला है,
वहाँ एक भट्ठी रहती है जो चुड़ैल से भी ज़्यादा खतरनाक है!”

फिर अगले दिन दूसरा दोस्त बोला —
“मेरी मम्मी ने बताया है कि उस धर्मशाला से थोड़ी ही दूर जो हवेली है,
वहाँ भी प्रेतात्माओं का बसेरा है!”

कुछ दिन बाद, ग्रुप का एक लड़का बेहद गंभीर आवाज़ में बोला —
“अगर ये दुआ पढ़ लो और तीन बार ताली बजाओ, तो कोई भी भूत, चुड़ैल या आत्मा वहीं से भाग जाएगी जहाँ तक ताली की आवाज़ पहुँचेगी!”

एक दिन गर्मियों की छुट्टियां चल रही थीं।
हमारी सभी बुआओं के बच्चे छुट्टियां बिताने आए हुए थे।
तो मेरे बड़े भाई ने योजना बनाई —
चलो उस धर्मशाला और हवेली को देखने चलते हैं।
हम सभी वहाँ जाकर यही दुआ पढ़ेंगे, तीन बार ताली बजाएंगे और फिर वहाँ से भाग जाएंगे।

हम तेज़ धूप में वहाँ पहुँचे।
धर्मशाला तो डरावनी नहीं थी, पर हवेली ज़रूर भूतिया लग रही थी —
जर्जर दीवारें, बाहर एक सूखा कुआँ, और चारों ओर फैली एक अजीब सी धुँधली छाया।

हम ऐसी जगह खड़े हो गए, जहाँ से हवेली और धर्मशाला दोनों एक साथ दिखती थीं।
फिर हमने एक साथ वह दुआ पढ़ी, तीन बार ताली बजाई,
और वहाँ से ऐसे भागे, जैसे सच में कोई प्रेतात्मा हमारे पीछे पड़ गई हो!

यही तो था वो बचपन, जहाँ बेवजह के काम भी पूरी ज़िम्मेदारी से किए जाते थे। 😄

ज़ी हॉरर शो में एक एपिसोड था — एक हीरे की अंगूठी वाला।
उसे देखकर हमारे चाचा के एक लड़के को हीरों से ऐसा लगाव हुआ,
कि वह नक़ली हीरों और चमकदार नगों को अपने पास सहेजकर रखने लगा।

वो उन्हें प्लास्टिक के ट्रांसपेरेंट डिब्बों में रखता,
जिनमें नीचे रुई बिछी होती थी — बिल्कुल जौहरियों की तरह।
वो उन नगों को रोशनी में घुमाकर ऐसे दिखाता,
मानो कोई बेशकीमती खज़ाना हो।

मज़ेदार बात ये थी कि उसकी शक्ल भी धीरे-धीरे उस हॉरर शो के एक किरदार से मिलने लगी थी —
शायद वह उस किरदार में कुछ ज़्यादा ही डूब गया था। 😄
जब भी उसके पास कोई नया 'हीरा' आता, हमें उसे देखने के लिए बाकायदा अपॉइंटमेंट लेना पड़ता था!
वो बड़ी-बड़ी आँखों में चमक लिए हीरों को बड़े गर्व से दिखाता था।

याद है मुझे अपने बचपन की वो मस्तियाँ, जब हम सब कीड़े-मकौड़ों से भी खेल लिया करते थे।
चाहे वो भौंरे हों, तितलियाँ हों या अन्य कोई कीट, सभी मस्तियों का हिस्सा होते थे।

अच्छी दिखने वाली चीज़ें मिलना बहुत मुश्किल होता है, और यह बात प्रकृति ने मुझे भौंरों के ज़रिए सिखाई थी।

जब हम बच्चे लाल रंग का भौंरा पकड़ते थे, तो वह बड़ी मुश्किल से हाथ आता था।
सच में, वह बेहद खूबसूरत और चालाक होता था।

और जिस भौंरे को हमने उसके रंग की वजह से ‘मिलिट्री’ नाम दिया था,
वह लाल भौंरे की तुलना में काफ़ी आसानी से पकड़ में आ जाता था।

जब हम बच्चे आपस में भौंरों का सौदा करते थे, तो दो ‘मिलिट्री’ भौंरों के बदले एक लाल भौंरा मिलता था।

और वो दिन भी क्या खूब होते थे जब मोहल्ले में कहीं पानी भर जाता था,
और हम सभी के कदम अपने आप उसी ओर मुड़ जाते थे...
तेज़ बारिश में नहाते, मस्ती करते,
और कभी-कभी तो “ब्राज़ील ला ला ला ला...” भी गुनगुनाते थे।

वो दिन भी याद हैं जब बचपन में हम घर के सामने लगे पेड़ और झाड़ियों के आस-पास घूमते रहते थे।
एक बार हम खेलते-खेलते कुछ ज़्यादा ही अंदर चले गए —
तब हमें उन पेड़ों के बीच एक गुफा जैसी जगह दिखी।
वो कोई पहाड़ी गुफा नहीं थी, बल्कि पेड़-पौधों और झाड़ियों को काट-छाँट कर बनाई गई एक छुपी हुई जगह थी।
वाह! क्या अद्भुत नज़ारा था वो...

थोड़ी देर बाद वहाँ हमें ताश के पत्तों की एक गड्डी मिली,
और तभी हमें समझ आया — यह जगह जुआ खेलने वालों ने बनाई थी!

खेल-कूद भी क्या खूब किस्म-किस्म के थे, जिनमें कुछ खेल ऐसे थे जो जेब-खर्च से कोसों दूर थे।

गिट्टियों को एक के ऊपर एक सजाना, फिर बॉल मारकर उन्हें गिरा देना और दौड़ जाना...
फिर ग्रुप का वही खिलाड़ी बॉल की चोट से बचते हुए उन्हें दोबारा उसी क्रम में लगाने की कोशिश करता था।

और कभी-कभी तो खेल का असली मक़सद ही बस एक-दूसरे को बॉल की चोट देना होता था —
या यूँ कहें, बॉल से एक बढ़िया 'चैका' लगाना ही सबसे बड़ा मज़ा था! 😅

याद है मुझे वो एक लड़का, जो हर दिन मोहल्ले में नए-नए बॉलर्स की स्टाइल में बॉलिंग करके हमें दिखाता था।
कभी जोश में कहता — ‘देखो, आज ज़हीर ख़ान की तरह बॉल डालूंगा!’
तो कभी कहता — ‘अब देखो ब्रेट ली का स्टाइल!’

मज़ेदार बात यह थी कि हर बार उसका बॉलिंग एक्शन एक ही जैसा होता था —
न ज़हीर की स्विंग, न ब्रेट ली की स्पीड, और तो और स्टाइल भी कहीं से मेल नहीं खाता था।

लेकिन उसे पूरा यक़ीन होता था कि उसने हूबहू वैसे ही फेंका है।
हम सब अपनी हँसी दबाकर एक-दूसरे की ओर मुस्कुरा देते।
उसकी वो मासूमियत, वो जोश — आज भी चेहरे पर मुस्कान ला देता है।

मोहल्ले में हमारे ये भी रिकॉर्ड दर्ज रहते थे कि सबसे लंबा स्ट्रेट सिक्स किसने मारा है,
सबसे लंबा लेग साइड सिक्स किसने मारा है,
और सबसे लंबा ऑफ साइड सिक्स किसने मारा है।

एक बार तेज़ हवा — कहें आँधी — चल रही थी, और हम सब मोहल्ले की सड़क पर क्रिकेट खेल रहे थे।
तभी हमारे ग्रुप के एक लड़के ने ऑफ साइड सिक्स मारा।
बॉल ऊपर ही थी कि अचानक एक ज़ोरदार झोंका आया,
और वो हल्की प्लास्टिक की बॉल उड़ती हुई बहुत दूर — किसी के टीन के शेड से जा टकराई।

उस लड़के का सेलिब्रेशन देखने लायक था।
बल्ला हवा में उठाया और पूरे जोश से दहाड़ते हुए बोला —
“ऑफ साइड का सबसे लंबा छक्का!”
और सच कहें तो — वो रिकॉर्ड फिर कोई नहीं तोड़ पाया। 😅

क्रिकेट में तो हर कोई चौका और छक्का जानता है, लेकिन हमारे मोहल्ले में एक और था — ‘दस्सा’।
जिसका मतलब था — जो खिलाड़ी बॉल को रेलवे ट्रैक तक पहुँचाएगा, उसे दस रन की बढ़त मिलती थी।
और मज़े की बात ये थी कि कभी-कभी इनाम में मिलता था च्युइंगम के साथ फ्री में दिया जाने वाला प्लास्टिक का छोटा डायनासोर!

कभी-कभी तो ऐसा भी होता था कि हम सब मिलकर एक छोटा सा चूल्हा बनाते,
और उसमें पुलाव पकाते।
कोई अपने घर से चावल लाता, कोई तेल, कोई मसाले,
कोई प्याज़, कोई मिर्च — और कोई सब्ज़ियाँ...
और पता नहीं क्यों, उस पुलाव का स्वाद इतना ज़बरदस्त होता था कि दिल करता था खाते ही जाओ।

पुलाव की बात से याद आया —

हमारे ग्रुप में एक लड़का था, जो अक्सर मेरे घर आकर मुझे क्रिकेट खेलने के लिए बुला लेता था।

फिर हम दोनों ही निकल जाते थे, तीसरे का इंतज़ार भी नहीं करते थे — ये सोचे बिना कि कीपिंग कौन करेगा!

एक बार जब वह मुझे बुलाने आया, तो उसी दिन हमारे घर यख़नी पुलाव बन रहा था।

मैं बिना कुछ खाए उसके साथ बाहर निकल गया, और थोड़ी देर में बाकी दोस्त भी आ गए।

पता नहीं क्यों, उस दिन मैं एकदम अलग जोश में था —
सिक्स पर सिक्स मारे जा रहा था!

तभी वो लड़का हँसते हुए बोला —
“शब्बीर, बस कर यार! वो तो मुझे मालूम है कि तू पुलाव खा के आया है...”

मैं हँसा तो वो बोला —
अलग ही ख़ुशबू आ रही थी तुम्हारे यहाँ से — सौंधी-सौंधी!

हमारे घर से कुछ दूरी पर हमारे ग्रुप का एक लड़का और था —
जो बिल्कुल डॉ. अब्दुल कलाम साहब जैसी मांग काढ़ता था,
पर उसके माथे पर लटकने वाले दो छल्ले कुछ ज़्यादा ही घुमावदार थे।

मुझे नहीं पता था कि मेरे चाचा को भी उसकी हेयरस्टाइल दिलचस्प लगती थी।
वो भी उसके बालों पर नज़र रखते और मन ही मन मुस्कुराते रहते।

एक दिन जब वो खेलने नहीं आया, तब चाचा बोले —
“क्यों, वो नहीं आया जो बड़े क़रीने से बीच की मांग काढ़ता है, डॉ. अब्दुल कलाम साहब जैसी…”

जब वो किसी दिन आया, तो चाचा ने उसे देखते हुए कहा —
“हाँ, तू है न... तू है न, आज...”

फिर अचानक उल्टी दिशा में मुड़कर मंद-मंद मुस्कुराने लगे। 😁

हमारे चाचा उस समय बड़े फ़नी टाइप के थे।
अगर कोई उन्हें ग्रीटिंग कार्ड भेजता, तो उन्हें बहुत अच्छा लगता था।

एक बार पोस्टमैन आया, तो उन्होंने पूछा —
“क्यों, हमारा आया है क्या कुछ?”
पोस्टमैन बोला — “नहीं।”
तो चाचा झुँझलाकर बोले — “अरे, दे जाया करो यार!”

अब इसमें हँसी की बात नहीं कि जब आया ही नहीं तो वो दे कैसे जाएगा? 😅

उनके ऐसे कारनामे एक नहीं, कई थे।

हमारे ग्रुप का एक छोटा लड़का, जो अक्सर अपना एक पसंदीदा गीत गुनगुनाया करता था।
एक दिन चाचा ने उसे रोका और बोले —
“बेटा, ऐसे नहीं, ऐसे गाओ...”
और फिर उस गाने में से एक शब्द हटाकर उसके पापा का नाम जोड़ दिया!

बचपन की कच्ची अक़्ल तो थी ही — लड़का वही गाना अपने घर पर गुनगुनाने लगा।
उसके चाचा ने सुन लिया, डाँट लगाई और पूछा —
“ये किसने सिखाया?”
तो लड़के ने सीधा नाम ले लिया...
फिर उसके चाचा हमारे चाचा से बोले —
“आप बड़े हैं, सोचते हैं कि आप अच्छी बातें सिखाओगे... पर जब आप ही ऐसा करोगे, तो हम किस पर विश्वास करें?”
लेकिन हमारे चाचा का तो हमेशा का वही ट्रेडमार्क जवाब था—
“अरे, मैंने नहीं…”

वो दिन भी याद है — जब चाचा और उनके दोस्त घर के बाहर ‘तेरे नाम’ फ़िल्म के मज़ेदार सीनों पर चर्चा कर रहे थे।
हर किसी को कोई न कोई सीन सबसे फ़नी लगा...
लेकिन हमारे चाचा को सबसे ज़्यादा मज़ा राधे के उस चश्मिश दोस्त की इस बात पर आया था —
“क्या है राधे भैया... बड़ा थैंक्यू थैंक्यू बोल गई!” 😄

उन्हें अपने दाँतों और मसूड़ों की सेहत का बड़ा ख़्याल रहता था।
अक्सर क्लोज़अप टूथपेस्ट का ऐड गुनगुनाते रहते —
“क्या आप क्लोज़अप करते हैं... दुनिया से नहीं डरते हैं...”

मैं अक्सर दादा की परचून की दुकान पर बैठता था।
कभी-कभी वो मोहल्ले की एक उम्रदराज़ औरत का नाम लेकर कहते —
“शब्बीर, दादा की दुकान से ठुठरे-ठुठरे चने लेकर आ,
मैं बताऊँगा वो औरत चने कैसे खाती है!”

जब मैं चने लाता, तो वह अलग ही फ़नी चेहरा बनाकर
मुँह चलाते हुए चने चबाकर दिखाते।
और हम सब हँसी रोकते-रोकते लोटपोट हो जाते। 🤣

हमारे घर के बिलकुल बगल में एक आदमी रहता था —
जिसे ऊँची आवाज़ में गाना गाने का बड़ा शौक था।
वह कुछ इस तरह के गीत गाया करता था —
“मत प्यार करो परदेसी से, एक दिन तो जुदा हो जाएंगे…”
या
“प्यार कभी कम नहीं करना, कोई सितम कर देना…”

चाचा भी उसी के अंदाज़ में वह सारे गीत गाकर दिखाते थे,
और ये सब सुनना किसी कॉमेडी शो से कम नहीं होता था। 😂

एक बार हल्की बारिश हुई थी —
ज़मीन भी गीली नहीं हुई थी —
पर चाचा को तो जैसे बरसात वाली फीलिंग आ गई थी।
उन्होंने कहा:
“अब तो ताज़े-ताज़े जामुन मिल जाएँ... नमक डालकर... हिलाकर नाई!”

एक बार उन्होंने मुझे 10 रुपये का नोट थमाया और कहा:
“कुछ बढ़िया-बढ़िया चीज़ें लेकर आ खाने को...”
मैं गया और चूरन, सुपारी वग़ैरह ले आया, और आठ रुपये लौटा दिए।
उन्होंने पैकेट देखकर कहा:
“ये क्या ले आया, कुछ अलग ही लाता... हटके नाई!”

छोटे चाचा फ़नी टाइप के थे, जबकि उनसे बड़े चाचा थोड़े कठोर स्वभाव के थे।

याद है वो दिन, एक शाम —
मैं, मेरे सभी भाई और बुआ के बच्चे,
पटरियों के किनारे-किनारे चलते हुए
बड़े पुल की सैर पर निकल पड़े थे।

पटरियों के किनारे-किनारे हम सब मस्ती करते हुए चल रहे थे।
चारों ओर हरियाली थी, हवा ठंडी थी और दिलों में बेफिक्री।
सब कुछ बहुत अच्छा लग रहा था।

हम आगे बढ़ते ही जा रहे थे कि सामने से बड़े चाचा जी आते दिखे।
उन्हें देखते ही सबकी जान हलक में आ गई।
कोई सोच भी नहीं सकता था कि वहाँ चाचा जी मिल जाएंगे!

बुआ का एक लड़का इतना डर गया कि झाड़ियों में छिपने की कोशिश करने लगा,
पर उसका वजन ज़्यादा था।

जैसे ही वो नीचे उतरा,
ढलान ने उसे पकड़ लिया —
और वो फिसलता चला गया जैसे कोई स्लाइड हो —

वो तब तक रुका ही नहीं जब तक ढलान खत्म न हो गई। 🤣
हम भी जैसे-तैसे खुद को सँभालकर झाड़ियों में छिप गए।
पर...
घर पहुँचते ही पता चला कि चाचा जी ने सब देख लिया था!

यही तो था हमारा बचपन —
जहाँ शामें भी होती थीं,
अब तो दिन के बाद सीधे रात हो जाती है।

मुन्ना भाई साहब: हमारी यादों की चलती-फिरती दुकान

मुन्ना भाई साहब: हमारी यादों की चलती-फिरती दुकान

Ghibli-style illustration inspired by Shabbir Khan’s life and writings

यह कहानी उस शख्स की है, जो हमारे बचपन की हर शाम में गहराई से रचा-बसा था — मुन्ना भाई साहब, जिनके ख़ास खाने के सामान हमारे दिलों में एक ख़ास जगह बना चुके थे। आज भी जब हम उन सुनहरी शामों को याद करते हैं, तो सबसे पहले वही स्वाद और उनके साथ बिताए वो बेहतरीन पल दिलों में ताज़ा हो जाते हैं।

मुन्ना भाई साहब एक गोल-मटोल, हँसमुख और सादादिल इंसान थे। उनके पास एक साइकिल हुआ करती थी, जिस पर लकड़ी की एक बड़ी पेटी बंधी रहती थी। लेकिन उस साइकिल पर सिर्फ़ पेटी नहीं होती थी — पूरी साइकिल छोटे-बड़े थैलों से लदी रहती थी, जिनमें पॉपकॉर्न, कुर्रइयाँ वगैरह भरे होते थे। और हाँ, उस साइकिल पर घंटी नहीं, बल्कि एक ज़ोरदार भोंपू होता था, जिसकी आवाज़ सुनते ही गली के सारे बच्चे खुशी-खुशी दौड़ पड़ते थे।

वह चीज़ें तो वही बेचते थे, जो अक्सर आसपास की दुकानों में मिलती थीं, लेकिन उनका अंदाज़ अनोखा था। वे कंजूस नहीं थे, खुले दिल के मालिक थे। उनके पास कई ऐसी चीज़ें भी होती थीं, जो आसपास की दुकानों में नहीं मिलती थीं। अगर आपने उनसे खीरे माँगे, तो पहले आपको उनमें से सबसे अच्छा खीरा खुद चुनने देते। फिर वहीं खड़े-खड़े उसे छीलते — छिलके उनकी बड़ी सी तोंद पर गिरते हुए ज़मीन पर गिर जाते। फिर वह खीरे को लंबी स्लाइसों में या गोल-गोल काटते, उस पर नींबू निचोड़ते और एक ख़ास सीक्रेट मसाला छिड़कते — सिर्फ़ एक रुपये में ऐसी ताजगी, जिसकी खुशबू से ही मुँह में पानी आ जाए!

मसाले वाली लाई का तो कहना ही क्या! लाई को लिफाफे में भरते, उसमें नमकीन मिक्सचर, प्याज़, नींबू और वही जादुई मसाला डालते। और जब सब मिलकर लाई में घुलते, तो उसका स्वाद ज़ुबान पर ऐसा चढ़ता कि आज भी याद आते ही स्वाद जाग उठता है। कभी-कभी उनके साइकिल के पास ऐसे-ऐसे एक्सपेरिमेंट होते थे, जिन्हें देखकर हैरानी हो जाती थी। जैसे — ऑरेंज आइसक्रीम पर मसाला छिड़क देना! पहले तो हँसी आती थी, लेकिन फिर टेस्ट कर के समझ आता था — अरे! इसमें तो मज़ा ही आ गया!

पॉपकॉर्न, कुर्रइयाँ, मूँगफली की चिक्की, लाई की चिक्की, नमकीन मिक्सचर की तमाम वैरायटी, बेर, मकोई, जामुन, जामफल — क्या नहीं होता था उनके पास! जब वह गली में पुकार लगाते — "बेर छोटे..." तो जवाब में कभी-कभी इधर-उधर से नटखट बच्चों की आवाज़ आती थी — "मुन्ना मोटे..."

हर शाम वह हमारे मोहल्ले में खंभे से साइकिल टिकाकर खड़े हो जाते। उनकी आवाज़ और मुस्कान पूरे मोहल्ले की रौनक बन चुकी थीं।

एक बार जब एक 10-11 साल का लड़का उनसे उधार में कुछ ले गया था, तो अगली बार वह बच्चा चूरन के साथ आने वाला 'भूतिया मास्क' पहनकर आया। मुन्ना भाई साहब ने उसका मास्क उतारा और कहा, 'क्यों बे! पिछले पैसे क्यों नहीं दिए अभी तक?' क्योंकि उसके सुनहरे बालों से मुन्ना भाई साहब ने उसे पहचान लिया था। हम सब ठहाके मारकर हँसे थे। यही था मुन्ना भाई साहब के सामान का स्वाद, कि लोग मास्क लगाकर भी आ जाते थे। 😄

मुझे बचपन में किताबें पढ़ने का बेहद शौक था — चाहे वो कहानियों की किताबें हों या कॉमिक्स। मैं घर के सामने की पटरियाँ पार कर कभी ‘शुभम’ तो कभी ‘सरस्वती बुक स्टोर’ से कॉमिक्स किराए पर लाया करता था। चाचा चौधरी, पिंकी और बिल्लू मेरी दुनिया हुआ करते थे। लेकिन असली खजाना तो मुन्ना भाई साहब के पास था।

वह कबाड़ का भी काम करते थे और उन्हें पता था कि किताबों से मेरा रिश्ता कितना खास है। जब भी रद्दी छाँटते, कहानियों की किताबें मेरे लिए अलग रख देते, जिन्हें मैं कभी पैसों से तो कभी पुराने अख़बारों के बदले उनसे ले लेता था।

एक बार मैं बिजली घर से निकल रहा था, तभी मुझे ख्याल आया कि मुझे बताया गया था कि मुन्ना भाई साहब का घर इस किराने की दुकान के बगल की गली में ही पड़ता है। मैंने सोचा, यहीं से निकलता चलूँ। मैंने देखा, मुन्ना भाई साहब शांति से भजन सुनते हुए अपना काम कर रहे थे। कमरे में अगरबत्ती की महक फैली हुई थी, और उनके चेहरे पर एक अलग ही शांति थी।

उस शाम, जब हर बार की तरह वह हमारे घर के पास आए, तो मैंने सब दोस्तों से तेज़ आवाज़ में कहा — "आज मैं मुन्ना भाई साहब के घर के सामने से निकला था... मुन्ना भाई साहब शांति से अगरबत्ती की खुशबू में अपना काम कर रहे थे, और भजन चल रहे थे — 'जय हनुमान ज्ञान गुन सागर...'" मेरी बात सुनकर मुन्ना भाई साहब हँसने लगे और देर तक मुस्कराते रहे।

मुझे याद है वह बात। बचपन में मुझे हमेशा अपने घर के सामने सफाई रखने का बहुत शौक था। मैं पानी का छिड़काव करता था और हर कोने को साफ़-सुथरा रखने की कोशिश करता था। यह मेरी आदत बन गई थी, और मुन्ना भाई साहब भी मेरी इस बात से प्रभावित थे। एक दिन जब मैं किसी त्योहार के खास मौके पर घर के सामने की सफाई निपटा चुका था, तो मुन्ना भाई साहब उस सफाई वाले स्थान को लगातार गहराई से देखते रहे और काफी देर बाद गंभीर स्वर में बोले — 'शब्बीर ने धरती को ऐसा बना दिया, जैसे स्वर्ग!' फिर उन्होंने खुद ही अपने ग्राहकों द्वारा फैलायी गई गंदगी उठाई और नाले के उस पार फेंक दी। यह उनके दिल की अच्छाई और उनकी सरलता को दर्शाता था।

कभी हमारे घर के सामने एक छोटी बगिया भी हुआ करती थी, जहाँ दादा ने सब्जियाँ उगाई थीं। मुन्ना भाई साहब उस बगिया में लगी भिंडियों को ऐसे खाते जैसे हम लोग गाजर खाते हैं। वह अक्सर खीरे के बदले मुझसे भिंडियाँ माँगते थे। मैं हैरान होता था कि कोई कच्ची भिंडियाँ कैसे खा सकता है! दरअसल, वह भिंडियाँ बेहद खास थीं — हल्के हरे रंग की, छूने में मखमली और जरा सा मोड़ते ही टूट जाती थीं।

वह मेरे हाथ से हुई बोनी को शुभ मानते थे। कहते थे, "शब्बीर कुछ खरीदे तो ग्राहक झुंड में आते हैं।" कई बार जब मेरे पास पैसे नहीं होते थे, तो वह ज़बरदस्ती मेरी पसंदीदा चीज़ तैयार करके पकड़ा देते थे। फिर मुझे मम्मी से पैसे लेकर उन्हें देने पड़ते। उस वक्त पॉकेट मनी कम होती थी और मोहल्ले में लुभावनी चीज़ें लेकर आने वालों की संख्या ज़्यादा!

गर्मियों में, वह अक्सर मुझसे फ्रिज का ठंडा पानी माँगते थे, और पीते इस तरह थे कि बोतल का लगभग 70% पानी उनके पेट में चला जाता था और 30% उनकी तोंद पर गिरता था।

आज वह बाज़ार में कभी-कभी दिख जाते हैं... लेकिन अब ना वह साइकिल, ना वह भोंपू, और ना ही वह मोहल्ले की मासूमियत। मुन्ना भाई साहब की असली पहचान महंगाई और डिजिटल दुनिया ने हमसे छीन ली है। मगर मेरी यादों में वह आज भी ज़िंदा हैं — वही साइकिल, वही भोंपू, वही मुस्कान और वही सीक्रेट मसाले की खुशबू के साथ।

श्रीकृष्ण भाई साहब: बचपन की यादों के सुखनवर

श्रीकृष्ण भाई साहब: बचपन की यादों के सुखनवर

Ghibli-style illustration inspired by Shabbir Khan’s life and writings

एक समय ऐसा भी था, जब दिनभर के काम से थक-हार कर घर के बड़े-बुजुर्ग और खेलकूद में थके बच्चे या तो घर के आंगन में, या फिर छत पर बिस्तर बिछाकर सोने की तैयारी करते थे।

उन दिनों रात के समय बिजली बहुत कम रहती थी। खाने के बाद, वक्त बिताने का तरीका होता था — किस्से-कहानियों का कार्यक्रम।

रात के अंधेरे और भूतों की कहानियों के बीच डर का ऐसा माहौल बन जाता कि बाथरूम जाना या नीचे से पानी भरकर लाना किसी जंग जीतने जैसा लगता था!

यह माहौल अक्सर गर्मियों की छुट्टियों में मिलता था।

लेकिन बात करें सर्दियों की — जब घर में अक्सर बिजली नहीं होती थी, और हम सब बेसब्री से ज़ी हॉरर शो का इंतज़ार करते थे — तब हमारी बेचैनी को काफी हद तक कम करने आ जाते थे श्रीकृष्ण भाई साहब।

सर्दियों में जब हम अलाव जलाते थे, तो वह केवल ठंड से बचने का जरिया नहीं, बल्कि किस्सों और कहानियों का अड्डा बन जाता था। शाम होते ही लकड़ियाँ इकट्ठा होतीं, जगह साफ़ होती, और फिर जलती आग के चारों ओर हम बच्चे गोल घेरा बनाकर बैठ जाते।

और फिर शुरू होता किस्सों-कहानियों का सिलसिला — दो-तीन घंटे कैसे बीत जाते, पता ही नहीं चलता था।

जब हम 'ज़ी हॉरर शो' की बातें करते या कोई अलौकिक चर्चा छेड़ते, तो श्रीकृष्ण भाई साहब भी तुरंत उसी सुर में शामिल हो जाते। फिर अपनी खुद की ज़िंदगी से जुड़ी अलौकिक कहानियाँ हमें सुनाने लगते। उनका अंदाज़ ऐसा होता कि पूरा माहौल बंध जाता।

कई बार किस्से सुनते-सुनते रात इतनी गहराई में चली जाती कि उनकी पत्नी उन्हें बुलाने आ जातीं। और वे कह देते — "तू चल, मैं आ रहा हूं।" लेकिन महफिल का रंग इतना गाढ़ा होता कि वह जाते-जाते फिर कोई नई कहानी शुरू कर देते।

कई बार तो आग की लकड़ियाँ राख बन जाती थीं, लेकिन हम वहीं बैठे रहते — जब अचानक बिजली लौट आती, तो सोचते, उठें या कुछ देर और बैठे रहें? और फिर, कुछ देर और किस्सों की उसी जादुई दुनिया में खो जाते।

उनके सुनाए एक किस्से की याद आज भी दिल से मिटती नहीं।

उनका एक किस्सा ये था कि —

एक रात, जब वह अपने दोस्त के साथ सुनसान, वीरान रास्ते से लौट रहे थे — चारों ओर घना अंधेरा पसरा था, और सन्नाटा ऐसा कि अपने ही कदमों की आवाज़ भी डराने लगे।

तभी सड़क किनारे कुछ हिलता-डुलता दिखा — एक छोटा-सा बकरी का बच्चा। मासूम, शांत, बिल्कुल सामान्य।

उन्होंने कहा — "इसे घर ले चलते हैं।"
चलते-चलते अब वह पैदल नहीं, साइकिल से आगे बढ़े — दोस्त साइकिल चला रहा था, और वह पीछे, गोद में बच्चा थामे हुए बैठे थे।

लेकिन कुछ ही दूर बढ़े थे कि माहौल अजीब-सा होने लगा — साइकिल भारी होने लगी, पैडल से अजीब-सी चरमराती आवाजें आने लगीं, जैसे कोई बहुत भारी बोझ पीछे घसीट रहा हो।

तुरंत उन्होंने पीछे झाँका — और फिर... दिल दहल गया।

बकरी के बच्चे के पिछले पैर काफी बड़े आकार के हो चुके थे।

डर के मारे जैसे ही उनकी नज़र उसके चेहरे पर पड़ी — रूह तक जम गई —
उस बकरी के बच्चे की आँखें बाहर निकल रही थीं, जैसे अब गिर ही पड़ेंगी!

बिना एक पल गंवाए उन्होंने ने उसे ज़ोर से झटका और चिल्लाए —
"तेज़ चला! जल्दी कर!"

साइकिल तूफान बन गई, दोनों मौत से लड़ते हुए अंधेरे को चीरते भागे...

पीछे से घनी रात में गूंजती एक भयानक, खुरदुरी आवाज़ आई —
"आज तो बच गया... अगली बार नहीं बचेगा..."

वह जिस अंदाज़ में कहानियाँ सुनाते थे, वह इतना निराला और मनमोहक होता था,
कि सुनने वाला सच या झूठ की परवाह किए बिना पूरी कहानी में खो जाता।

किस्से-कहानियों की महफ़िल खत्म होती ही थी कि तब तक लाइट आ जाती थी, और ज़ी हॉरर शो के आने का समय भी हो जाता था। लेकिन तब तक नींद आँखों पर भारी होने लगती थी।

पापा चेहरे पर पानी के छींटे मारते और कहते — "उठो! पहले ज़ी हॉरर शो तो देख लो!"

पड़ोस की एक गली के कुछ बच्चे भी डरते-सकुचाते टीवी देखने आ जाते।
पहले दरवाज़े पर झाँकते, तो हमें लगता — बस एक-दो ही हैं।
फिर बुलाने पर हिम्मत करके अंदर आ बैठते।
और देखते-देखते पता चलता — "अरे, ये तो पूरी पलटन आ गई!" 😄

वे डरते भी थे और उस हॉरर शो के शौकीन भी थे।
बीच-बीच में जब विज्ञापन आते, तो उन्हें देखकर हँस पड़ते।
क्योंकि उन दिनों के ऐड भी कुछ खास ही होते थे—

"घर में तो मम्मी ने गरमा-गरम जलेबियाँ बनाई हैं..."

"पान पराग — पान मसाला..."

"खाओ गगन, रहो मगन..."

कभी-कभी एपिसोड इतने डरावने हो जाते कि सबको वापस जाते वक्त डर लगने लगता। पापा समझाते—"बेटा, ये सब काल्पनिक कहानियाँ हैं।" डरते-डरते वे सभी अपने घर की ओर लौटते।

सुबह फिर वही स्कूल, वही चहल-पहल। छुट्टी के बाद वही ज़ी हॉरर शो के एपिसोड की बातें आपस में करना, और फिर शुरू हो जाता दिनभर का वही खेल — क्रिकेट, कंचे, सितोलिया, और न जाने क्या-क्या खेल, जो आजकल कहीं देखने को नहीं मिलते।

खेलते-खेलते कभी किसी अम्मा की आवाज़ सुनाई देती —
"हे बेर बिरचुन बेर..."

तो कभी —
"गुलाब लच्छी, खाने में अच्छी..."

कभी पानी टिक्की वाला आ जाता,
कभी कुल्फी के ठेले से टन-टन बजती,
तो कभी आइसक्रीम वाले के भोंपू की आवाज़ मोहल्ले में गूंज उठती।

और फिर...

शाम के सौदागर — मुन्ना भाई साहब आ जाते, और शाम ढलते ही,

रात के सुखनवर — श्रीकृष्ण भाई साहब आ जाते, वही पुरानी कहानियाँ, वही रोमांच, वही अहसास लेकर...

यह भी एक अजीब इत्तेफ़ाक था — दोनों के नाम के साथ 'भाई साहब' जुड़ता था, जैसे प्रकृति ने तय कर रखा हो कि बचपन की यादों को हमेशा इज़्ज़त से संजोया जाए।

कौन है जो गिरते से बचाता है?

कौन है जो गिरते से बचाता है?

Ghibli-style illustration inspired by Shabbir Khan’s life and writings

एक रात मैं अपने कमरे में दीवान पर सोया हुआ था। यह रात बाकी रातों जैसी ही थी। उस दिन न कोई ख्वाब था और न ही कोई बेचैनी। मैं बेसुध सो रहा था।

शायद एक-दो घंटे ही सोया था कि अचानक मुझे एक झटका सा महसूस हुआ — और मैं जाग गया।

वह क्षण

मुझे वह एक क्षण आज भी साफ़-साफ़ याद है — जब एहसास हुआ कि मैं दीवान से गिर रहा हूँ, और अगले ही पल मैंने तेज़ी से करवट लेकर खुद को बचा लिया।

शायद मैं नींद में करवट बदल रहा था और इस बात से अनजान था कि मैं नीचे ठोस ज़मीन पर गिरने वाला हूँ।
पर तभी जैसे किसी ने मेरी रूह के भीतर से कहा हो —

“मोड़ लो अपना रुख... नीचे गिरने से बच जाओगे।”

जागते हुए भी मुझे वह नींद का पल याद है —
जब मैं सचमुच गिर रहा था, और ठीक उसी समय मैंने खुद को गिरने से रोक लिया।

इसलिए झटका सा लगा और मैं गहरी नींद से उठ बैठा।

अजीब एहसास

हैरानी की बात यह थी कि नींद में ही मैंने खुद को दूसरी ओर मोड़ लिया — और उसी समय अचानक महसूस किया कि मैं तो गिरने ही वाला था।

उस समय जैसे कोई आंतरिक शक्ति मेरी रक्षा कर रही थी।
मैं चुपचाप लेटे-लेटे सोचता रहा —

यह क्या था? क्या यह मैं था या कोई और मेरे लिए जाग रहा था? क्या हम सोते हुए भी जागते हैं? या फिर ईश्वर ने हर इंसान के अंदर एक चौकीदार रखा है, जो नींद में भी उसकी हिफ़ाज़त करता है? 😃

 

विज्ञान क्या कहता है?

🔍 क्या हम सोते वक्त भी जागते हैं?

हाँ, कुछ हद तक।
हमारी नींद पूरी तरह से बेहोशी नहीं होती। दिमाग सोते वक्त भी कुछ बुनियादी गतिविधियाँ जारी रखता है — जैसे शरीर की स्थिति पर नज़र रखना, आवाज़ों का ध्यान रखना, और संतुलन का ख्याल रखना।

इस स्थिति को "hypnagogic awareness" या आंशिक चेतना कहा जाता है।

🧠 कैसे पता चला कि मैं गिरने वाला था?

दिमाग का एक हिस्सा — vestibular system — यानी संतुलन और गति का केंद्र, सोते वक्त भी सक्रिय होता है।

जब आप नींद में करवट बदलते हैं और शरीर का संतुलन अचानक बदलता है, तो यह सिस्टम "खतरे का संकेत" भेजता है:
⚠️ “तुम गिर रहे हो!”

आपका motor system, जो शरीर को नियंत्रित करता है, तुरंत प्रतिक्रिया करता है — भले ही नींद पूरी तरह से टूटी न हो।

🛡️ मैंने खुद को कैसे बचाया?

यह एक स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया थी — जैसे आपको सपने में लगे कि आप गिर रहे हैं और आप झटके से उठ जाते हैं।

यह वैसा ही है जैसे हम किसी गर्म चीज़ को छूकर तुरंत हाथ हटा लेते हैं — बिना सोचे समझे।
यानी, दिमाग नींद में भी हमारी सुरक्षा में लगा रहता है।

🤔 क्या यह चमत्कार था?

यह चमत्कार जैसा ज़रूर लग सकता है, लेकिन वास्तव में यह हमारी प्राकृतिक सुरक्षा प्रणाली है जो हमें चोट से बचाती है।

🧬 सरल भाषा में:

  • आप सोते वक़्त पूरी तरह बेसुध नहीं होते।
  • दिमाग आपकी शारीरिक स्थिति और संतुलन पर नज़र बनाए रखता है।
  • जब खतरा महसूस होता है, तो वह बिना आपको पूरी तरह जगाए प्रतिक्रिया करता है — जैसे गिरने से पहले आपको बचा लेना।

मिले सुर मेरा तुम्हारा: बचपन की यादें और दिल को छूने वाली धुनें!

मिले सुर मेरा तुम्हारा: बचपन की यादें और दिल को छूने वाली धुनें!

Ghibli-style illustration inspired by Shabbir Khan’s life and writings

यह वह गीत है, जो मैंने पहली बार टीवी पर सुना था, जब मेरी आंखें अधखुली थीं और मम्मी की आवाज़ कानों में गूंज रही थी — "उठ जा बेटा..."

उस वक़्त कुछ समझ नहीं आता था, पर सुरों की वह नदी दिल में बहती चली जाती थी।

"मिले सुर मेरा तुम्हारा" एक ऐसा वीडियो गीत है, जिसे 15 अगस्त 1988 को भारतीय टेलीविज़न पर पहली बार प्रसारित किया गया था।

इसमें भारत की 14 भाषाओं को सुरों में पिरोया गया था, जिसमें अलग-अलग राज्यों के लोकप्रिय अभिनेता, कलाकार और खिलाड़ी शामिल थे। इस गीत का मूल भाव था — 'विविधता में एकता'।

आज जब मैं इस गीत को इंटरनेट पर ढूंढ रहा था, तो कहीं भी इसके सटीक, पूरे और स्पष्ट लिरिक्स नहीं मिले।
शायद इसलिए कि यह गीत अनेक भाषाओं का संगम है।

पर सच्चाई यह है कि भारतीय भाषाओं के किसी भी शब्द या ध्वनि को देवनागरी लिपि में ज्यों का त्यों लिखा जा सकता है, और फिर उस पाठ को लगभग हू-ब-हू उच्चारण किया जा सकता है — जो कि रोमन लिपि और बाकी कई लिपियों में तब तक संभव नहीं, जब तक कोई विशेष मानकीकरण न हो।

क्योंकि यह बचपन की यादों से जुड़ा लेख है, न कि किसी लिरिक्स वेबसाइट का पृष्ठ, इसलिए मैं यहाँ इस गीत के बोलों को अपनी बचपन की यादों के साथ मिलाकर लिख रहा हूँ, ताकि आप इस गीत के सही बोल भी जान सकें और मेरी तरह ही उन लम्हों में जी सकें।



वो सुबह...

शायद मैं पिछली रात ज़ी हॉरर शो देखकर सोया था।
सुबह आंखें अधखुली थीं।
मम्मी उठा रही थीं—
"उठ बेटा... उठ जा..."

टीवी से सुरों की मिठास बह रही थी—

🎶 मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा...
🎶 सुर की नदियॉं हर दिशा से, बहते सागर में मिले...
🎶 बादलों का रूप ले कर, बरसे हलके हलके...
🎶 मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा...
🎶 मिले सुर मेरा तुम्हारा...

इन्हीं सुरों के बीच... मैंने करवट बदली और रज़ाई में और भी गहराई से दुबक गया।

मम्मी घर का सारा काम निपटा चुकी थीं।
फिर आवाज़ लगाई —
"उठ बेटा... आज तो वैसे भी छुट्टी है!"

🎶 चॉन्य् तरज़ तय म्यॉन्य् तरज़, इक॒वट॒ बनि यि सॉन्य् तरज़...

मम्मी ने ग़ुस्से से कहा —
"उठ जा... बाद में सो लेना!"

🎶 तेरा सुर मिले मेरे सुर दे नाल, मिलके बणे एक नवॉं सुर ताल...

मैंने धीरे-धीरे बिस्तर छोड़ा।

 🎶 मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा...

वॉशरूम गया, ब्रश किया, मुंह धोया।
सुर अब भी टीवी से बह रहे थे...

🎶 मुहिंजो सुर तुहिंजे सॉं पियारा मिले जड॒हिं, गीत असॉंजो मधुर तरानो बणे तड॒हिं...

बाल जैसे-तैसे ठीक किए,
तेज़ी से तैयार हुआ—
बाहर खेलने की जल्दी थी।

 🎶 सुर का दरिया बहके सागर में मिले...

 🎶 बदलॉं दा रूप लैके बरसन हौले हौले...

नाश्ते की कोई फुर्सत नहीं थी।
पर दादा की दुकान से बिस्किट लेने गया।

🎶 इसैन्दाल नम इरुवरिन् सुरवुम नमदागुम...
🎶 दिसै वेर आनालुम आळि सेर आरुहळ मुगिलाय मळैयाय पोळिवदु पोल इसै...
🎶 नम इसैऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ...

लौटते वक्त देखा — मम्मी चाय छान रही थीं।

🎶 नन्नऽ ध्वनिगे निन्नऽ ध्वनियऽ, सेरिदन्ते नम्म ध्वनियऽ...

 🎶 ना स्वरमु नी स्वरमु संगम्ममै, मनऽ स्वरंगा अवतरिंचे...

 🎶 एन्टे स्वरवुम नीङ्गळुटे स्वरवुम, ओत्तुचेर्न्नु नमुटे स्वरमय...

बैठकर चाय पीने लगा...

🎶 तोमार शुर मोदेर शुर, सृष्टि करूक ओइक्को शुर...

🎶 तोमार शुर मोदेर शुर, सृष्टि करूक ओइक्को शुर...

मैं चाय पी रहा था…
एक बिस्किट चाय में गिर गया।

मैंने चम्मच से निकालने की कोशिश की,
पर वो बिस्किट चाय में घुल गया…

🎶 सृष्टि होउक ओइक्को तान...

मैं एक पल को ठहर गया।
चाय का घूंट लिया।

🎶 तुमऽ आमरऽ स्वररऽ मिळनऽ, सृष्टि करि चालु एका तानऽ...

दरवाज़े पर दस्तक हुई।
बचपन के दोस्त थे।

 🎶 मळे सुर जो तारो मारो, बने आपणो सुर निराळो...

"जल्दी कर यार!" एक ने कहा —
"सब तेरा इंतज़ार कर रहे हैं!"

 🎶 माझ्या तुमच्या जुळता तारा, मधुर सुरांच्या बरसती धारा...

मैंने जवाब दिया —
"बस आ रहा हूँ।"

अब हाथ धो चुका था,
मन मुस्कुरा रहा था।

🎶 सुर की नदियॉं हर दिशा से, बह के सागर में मिलें...
🎶 बादलों का रूप ले के, बरसे हलके हलके...

बाहर निकला तो
सामने दोस्त खड़े थे —
मुस्कुराते हुए, जैसे खेल के इंतज़ार में हों।

पीछे से टीवी की आवाज़ अब भी गूंज रही थी:

 🎶 मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा...
🎶 मिले सुर मेरा तुम्हारा, तो सुर बने हमारा...



यही तो था वो बचपन —

जहाँ हर सुबह सुरों के साथ खिलती थी।
जहाँ मम्मी की आवाज़, दोस्तों की दस्तक
और टीवी के सुर —
एक साथ मिलकर बचपन की सुबह बना देते थे।



गीत श्रेय:

निर्माता: कोना प्रभाकर राव, आरती गुप्ता और कैलाश सुरेंद्रनाथ, लोक सेवा संचार परिषद, भारत के साथ।

गीतकार: पीयूष पांडे

संगीतकार: पंडित भीमसेन जोशी, लुईस बैंक्स, अशोक पत्की

गायकगण: पंडित भीमसेन जोशी, लता मंगेशकर, एम० बालामुरलीकृष्णा, कविता कृष्णमूर्ति, सुचित्रा मित्रा, आनंद शंकर

फाल्गुनी और हिमेश: मेरे बचपन और टीनएज की आवाज़ें

फाल्गुनी और हिमेश: मेरे बचपन और टीनएज की आवाज़ें

Ghibli-style illustration inspired by Shabbir Khan’s life and writings

वैसे तो हम सभी ने कई महान शख़्सियतों की गायकी सुनी है, उन्हें पसंद किया है और आज भी करते हैं। हम उन्हें सुनते हैं, उनके हुनर को मानते हैं। मैंने उस्ताद नुसरत फ़तेह अली ख़ान साहब को खूब सुना है, लता मंगेशकर जी को भी, और रविंद्र जैन जी द्वारा “राम तेरी गंगा मैली” में दिया गया संगीत भी मुझे बहुत पसंद है। ख़ासकर इन तीनों संगीतकारों का कोई जवाब नहीं।

लेकिन इन दिग्गजों के अलावा दो ऐसे संगीतकार भी हैं, जिन्होंने मेरे जीवन पर अपनी अलग ही छाप छोड़ी — फाल्गुनी पाठक जी और हिमेश रेशमिया जी।
आज भले ही मैं उन्हें उतना नहीं सुनता, लेकिन बचपन और टीनएज में मेरी तरह कई लोगों ने उन्हीं लम्हों को जिया होगा, जिनका ज़िक्र मैं करने जा रहा हूँ।

तो शुरुआत करते हैं फाल्गुनी पाठक जी से।

बचपन में जब मैं डेक के पास बिखरी हुई कैसेट्स को सही क्रम में रखने का काम करता था, तब मुझे सबसे अलग एक लड़की की तस्वीर अपनी ओर खींचती थी — फाल्गुनी पाठक जी की।
हँसती, मुस्कुराती, बॉय कट में एक लड़की, जो लड़कों जैसे कपड़े पहने होती थी। बचपन की कच्ची समझ में मैं यही सोचता था कि ये लड़कों जैसे कपड़े क्यों पहनती हैं।
लेकिन जब उन्हें सुनता, तो हैरान रह जाता — कितनी मीठी और सुरिली आवाज़ है!

पर एक बात जो मुझे बार-बार फाल्गुनी पाठक जी से जोड़ती थी,
वह था उनका मशहूर गीत, जो अक्सर टीवी पर आता था — “मेरी चुनर उड़-उड़ जाए।”

इस गीत को देखते ही मैं जैसे किसी अलग ही दुनिया में खो जाता था।
कभी-कभी अकेले में थोड़ा डर भी लगता था, क्योंकि उस वक़्त मैं बहुत छोटा था —
और इस गीत में दिखाए गए दृश्य मुझे कुछ अद्भुत और अलौकिक-से लगते थे,
जैसे — सीढ़ियों से उतरती सख़्त नज़र आने वाली महिला,
तस्वीर से निकलकर जीवित हो जाने वाली औरत,
और वह घने बालों वाली सफ़ेद गाय, जो पूरे दृश्य को रहस्यमय बना देती थी।

एक और गीत था — “इन्धना विनवा।”
इस गीत में अभिनेत्री द्वारा पहना गया कार्निवल कॉस्ट्यूम मेरी समझ से हमेशा बाहर रहा।
बचपन में वह मास्क और पोशाक मुझे फैशनेबल नहीं, बल्कि अजीब-से लगते थे।

इस गीत का एक गुजराती वर्जन भी था, जो आज भी मेरी दिवाली की यादों से जुड़ा हुआ है।

याद है, एक बार दिवाली के दिन पापा हमारे घर का पूरा म्यूज़िक सिस्टम अपनी दुकान ले गए थे।
वहाँ सिर्फ़ फाल्गुनी पाठक जी के ही गीत बज रहे थे —

🎶 “इन्धना विनवा गई थी मोरे सैंया...”
🎶 “आई परदेस से परियों की रानी...”
🎶 “कैसे आँख मिलाऊँ...”
🎶 “चूड़ी जो खनकी...”

वो दिवाली क्या खूब थी!
हर ओर अद्भुत रौनक थी, ऐसी कि आज के समय में उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।

पापा वेल्डिंग के लिए इस्तेमाल की जाने वाली गैस से गुब्बारे फुला रहे थे — जिन्हें आग से फोड़ने पर इतनी धमाकेदार आवाज़ आती थी कि बड़े से बड़ा पटाखा उसके आगे फीका पड़ जाता था।
दुकान पर उनके दोस्तों का जमावड़ा था, संगीत की धुनें हवा में तैर रही थीं, रोशनी थी, चहल-पहल थी, और चारों ओर मिठाई, नारियल, खील और बतासों की खुशबू फैली हुई थी।

और फिर रात को रिक्शे पर म्यूज़िक सिस्टम और वो भारी-भरकम गैस वेल्डिंग का सारा सामान लादकर घर लौटना...

आज सोचता हूँ तो हैरानी होती है — लोग तब मनोरंजन के लिए इतनी झंझटों की भी परवाह नहीं करते थे।
मोहल्ले में भी वही गैस वाले ‘पटाखे’ फोड़े गए — हर तरफ़ वही रौनक, वही चमक-दमक हर कोने में बिखरी हुई थी।
और फाल्गुनी जी के गीत — जैसे उस रात की धड़कन बन गए थे।

क़सम से, वैसी दिवाली फिर कभी नहीं आई।

फिर जब टीनएज का दौर आया, तो एक और सितारा चमका — हिमेश रेशमिया जी।
वो भी फाल्गुनी पाठक जी की तरह काफ़ी लंबे समय तक छाए रहे।

फाल्गुनी जी के संगीत की एक अलग सी मिठास थी, और हिमेश जी के संगीत में एक अलग ही दर्द, दीवानगी और पकड़।
आज जब मैं उनके कुछ गीत सुनता हूँ, तो टीनएज के वो पल फिर से मन में जाग उठते हैं।

याद है, जब मैं ट्यूशन पढ़ने जाया करता था अपने मोहल्ले के दोस्तों के साथ — क्या दिन थे वो!
हर गली, हर नुक्कड़, हर दुकान में सिर्फ़ हिमेश जी के ही गीत बजते थे —

🎶 “आपकी खातिर मेरे दिल का जहाँ है हाज़िर...”
🎶 “तू याद न आए ऐसा कोई दिन नहीं...”
🎶 “आई लव यू ओ सय्योनी...”
🎶 “आहिस्ता आहिस्ता...”

आज जब मैं फ़िल्म “आहिस्ता आहिस्ता” का यही गीत सुनता हूँ,
तो लगता है, जैसे उन दिनों की — न केवल वो जादुई शाम, बल्कि उसकी खुशबू भी लौट आई हो।
यह गीत सच में उन लम्हों को हूबहू ज़िंदा कर देता है।

“यादों की परछाइयाँ... तन्हाइयाँ...
तुमसे ही हैं... तुमसे ही हैं...
तुम दिल में शरीक हुए...
आहिस्ता... आहिस्ता...”

याद है, एक बार ग्वालियर के एक पैलेस में शादी का रिसेप्शन था।
हमारी फ़ैमिली रास्ता पूछते-पूछते उस मुक़ाम तक पहुँची थी।
वहाँ भी हिमेश जी का ही जलवा था —

🎶 “ज़र्रे-ज़र्रे से मैं तेरी आहट सुनता हूँ, तेरे ही ख़्वाबों की झालर में बुनता हूँ...”
🎶 “तू ही मेरे अरमानों में, तू ही मेरे अफ़सानों में...”
🎶 “तू ही आरज़ू है, तू ही मेरा प्यार है...”
🎶 “ओ... हुज़ूर, तेरा तेरा तेरा सुरूर...”

“ओ... हुज़ूर, तेरा तेरा तेरा सुरूर...”
ये गीत भी क्या ही कमाल का है — एक समा बाँध देता है।
वायलिन का ऐसा सुरमय संगम, शायद ही किसी और गीत में सुना हो मैंने...

और ये गीत — “समझो ना, कुछ तो समझो ना” — जब शाम को टीवी पर आता था, लोग उसका इंतज़ार करते थे।

याद है, हमारी बुआ का एक लड़का था — जो उन दिनों कुछ दवाएँ ले रहा था, लेकिन जिन्हें खाने का उसका बिल्कुल भी मन नहीं होता था।
वो भी हर शाम इस गीत को दिल से देखा और सुना करता था। ख़ासकर वो सीन, जिसमें हिमेश जी टैबलेट लेते हुए दिखते — उस मोमेंट पर वो भी तुरंत उठता, उसी स्टाइल में टैबलेट उठाता और हिमेश जी के अंदाज़ में ही पानी के साथ निगल लेता।

हिमेश जी द्वारा “मैं जहाँ रहूँ” गीत भी हर दिल पर छाया हुआ था।
इसे कृष्णा बेउरा जी ने राहत फ़तेह अली ख़ान साहब के साथ गाया था, और इसके बोल जावेद अख़्तर साहब ने लिखे थे।

एक और गीत था — “आपकी कशिश”, जिसे कृष्णा बेउरा जी ने हिमेश जी के साथ गाया था, और इसके बोल समीर जी ने लिखे थे। वो गीत भी लाजवाब था —

“आपकी कशिश सरफ़रोश है,
आपका नशा यूँ मदहोश है,
क्या कहें तुमसे, जाने जा
गुम हुआ होश है...”

इस गीत में फीमेल सिंगर अहीर जी की आवाज़ भी बहुत दिल को छूने वाली थी —
“जाना ये, जाना, ये मैंने जाना,
तू मेरा, तू मेरा दीवाना...”

गीतकार के तौर पर समीर जी का भी हिमेश जी के संगीत में बहुत बड़ा योगदान रहा।

जब हिमेश रेशमिया का गोल्डन एरा चरम पर था, तब बॉलीवुड का संगीत भी अपने एक सुनहरे दौर से गुज़र रहा था। उस समय प्रीतम, आनंद राज आनंद, विशाल–शेखर और शंकर–एहसान–लॉय लगातार एक से बढ़कर एक यादगार गीत दे रहे थे। इनके अलावा अन्य संगीतकारों की ऐल्बमों और गीतों ने भी श्रोताओं के दिलों में ख़ास जगह बना ली थी।

याद है, उन दिनों तेज़ आवाज़ वाले फ़ोन खूब लोकप्रिय हो रहे थे। मेरे पास उस समय माइक्रोमैक्स का एक ऐसा स्मार्टफोन था, जो अपनी ज़बरदस्त साउंड और बैटरी बैकअप के लिए मशहूर था। पापा को भी इसकी आवाज़ पसंद आई, तो उन्होंने भी वही मॉडल ख़रीद लिया। दोनों फ़ोन इतने एक जैसे दिखते थे कि पहचानना मुश्किल हो जाता।

एक शाम, मेरी बुआ के लड़के और उनके दोस्त हमेशा की तरह बाज़ार और ब्रिज की सैर पर निकलने ही वाले थे कि उनमें से बुआ के एक लड़के की नज़र बाहर कुर्सी पर रखे फ़ोन पर पड़ी। उसने अपने दोस्तों से कहा —
“अबे, शब्बीर का मोबाइल ले चलते हैं, गाने सुनेंगे।”

हँसी की बात ये थी कि उसने मेरा फ़ोन समझकर पापा का फ़ोन उठा लिया — जो घर के बाहर कुर्सी पर रखा था।

मेरे फ़ोन की प्लेलिस्ट में उस समय कुछ ऐसे गाने होते थे —

🎶 “तेरे बिन...”
🎶 “तू ही हक़ीक़त...”
🎶 “तो फिर आओ...”
🎶 “तू ही मेरी शब है...”
🎶 “एक दिन तेरी राहों में...”

और ऐसे तमाम सुपरहिट गाने, जो उन्हें बेहद पसंद थे।

लेकिन वह शाम जैसे उन्हें किसी दूसरी ही दुनिया से रूबरू करा रही थी — उनका सारा समय इसी मशक्कत में निकल गया कि फ़ोन में कोई ऐसा गाना मिल जाए, जो उनकी पसंद और अंदाज़ से मेल खा जाए। मगर पापा की प्लेलिस्ट का तो अपना ही जलवा था —

🎶 “भँवरे ने खिलाया फूल, फूल को ले गया राजकुंवर...”
🎶 “ये गलियाँ ये चौबारा, यहाँ आना न दोबारा...”
🎶 “मुहब्बत है क्या चीज़ हमको बताओ...”
🎶 “मेरी किस्मत में तू नहीं शायद...”
🎶 “मैं हूँ प्रेम रोगी...”

हाहा! पता नहीं क्यों, मुझे ऐसा लगता है कि बुआ के लड़के ने “मैं हूँ प्रेम रोगी” पर अपने दोस्तों को हँसाने के लिए ज़रूर कोई फ़नी मूव किया होगा। 😄

आख़िरकार, परेशान होकर उसने दोस्तों से कहा —
“यार, इतना टाइम हो गया... एक भी ढंग का गाना नहीं मिल रहा!”

घर पहुँचते ही उसने वो फ़ोन मेरी मम्मी को दे दिया। जब मैं उसे मिला, तो वो हल्की मुस्कान के साथ बोला —
“क्यों, मामू का मोबाइल ही था ना वो?”

उन दिनों मैं अक्सर हिमेश जी के अलावा आतिफ़ असलम, के.के., कैलाश खेर और रब्बी शेरगिल को भी सुना करता था, लेकिन टीनएज के उस ख़ास दौर के जो सबसे यादगार पल थे — उन पर तो पहले ही हिमेश जी की धुनों ने अपनी गहरी छाप छोड़ दी थी।

बस यही थे वो पल — जो आज भी याद आते हैं, तो मुस्कान भी लाते हैं और आँखें भी नम कर जाते हैं।
फाल्गुनी पाठक जी और हिमेश रेशमिया जी — मेरे बचपन और टीनएज के वो संगीतकार, जिनकी धुनों में मेरा पूरा बचपन और जवानी महकती है।

डरना मना है: एक भूली हुई सिनेमैटिक जादूगरी

डरना मना है: एक भूली हुई सिनेमैटिक जादूगरी

Ghibli-style illustration inspired by Shabbir Khan’s life and writings

आजकल की हिट फिल्मों में चाहे जितनी भी चमक-दमक हो, मुझे उनमें वो रोमांच, वो सच्चा सिनेमैटिक अनुभव नहीं मिलता — ख़ासतौर पर कैमरा ऐंगल्स की बात करें तो।

मैंने पहले भी अपने ब्लॉग पर इसकी कई वजहें साझा की हैं, लेकिन एक बात जो अब तक अनकही थी, वो आज एक यादगार फिल्म के ज़रिए कहना चाहता हूँ — 2003 में रिलीज़ हुई ‘डरना मना है’।

इस फिल्म की सबसे बड़ी ताक़त थी इसकी सिनेमैटोग्राफी।

सात दोस्त — श्रुति, सुमन, रोमी, मेहनाज़, नेहा, अमर और विकास — एक गाड़ी में सवार होकर जंगल से गुज़र रहे होते हैं। तभी टायर पंचर हो जाता है, और फिर पता चलता है — जैक तो लाना ही भूल गए। एक हल्की सी रौशनी दूर से टिमटिमाती दिखाई देती है। सबका ध्यान उसी तरफ खिंचता है। जैसे ही वो उस दिशा में बढ़ते हैं, सामने आता है जंगल के बीच एक वीरान खंडहर — टूटी-फूटी दीवारें, सूखे पत्ते और घास की सरसराहट।

और उस सबके बीच… वो अकेली जलती हुई लालटेन। वही खंडहर बनता है उनका आरामगाह, और वहीं से शुरू होती है एक-एक कर के डर की दास्तानें।

मुझे आज भी याद है — फिल्म की शुरुआत का ऊँचाई से लिया गया वो शॉट: झाड़ियाँ, सड़क, चाँदनी रात, और दूर से आती हुई एक गाड़ी। हल्की हँसी, दोस्तों की मस्ती, और जंगल की नेचुरल लाइटिंग — हर फ्रेम रोमांच से भरा। सोचिए, उस एक शॉट के लिए डायरेक्टर और टीम ने कितनी मेहनत की होगी।

अब के डायरेक्टर?
क्या वे इतने डीटेल्स पर ध्यान देते हैं?
साफ़ कहूँ — नहीं।
क्योंकि अब फिल्में नहीं बनतीं, बस ‘कंटेंट’ बनता है।

एक सीन था — लालटेन का क्लोज़अप, फिर ग्रुप शॉट, सब दोस्त खंडहर में घूमते हुए बातें कर रहे थे:

‘पर ये लालटेन किसका होगा, यार?’

‘अरे छोड़ो ना, जिसका भी होगा, आ ही जाएगा।’

‘क्यों? आने के बाद क्या वो हम सबको गरमागरम चाय बनाकर पिलाएगा?’ 😄

और बैकग्राउंड म्यूज़िक — माहौल जमा देता था।
ये सिर्फ एक फिल्म नहीं थी, एक एहसास था।

हर कहानी या उससे जुड़ा कोई सीन याद रह जाता है।

जैसे:

पहली कहानी: अंजलि करण पर सिर रखकर आँखें बंद करती है, और मिरर में करण का अक्स नहीं होता।

दलदल से एक हाथ निकलता है, जिसमें करण की घड़ी बंधी होती है। अंजलि उसे बचाने की कोशिश करती है, लेकिन करण डूब जाता है। तभी करण पीछे से उसके पास आता है — वो सीन वाकई रोमांचित कर देने वाला था।

दूसरी कहानी: होटल मालिक का साइको अंदाज़ में अनिल की सिगरेट की लत छुड़ाने में भिड़ जाना।

कहानी की शुरुआत — अनिल की कार होटल के सामने रुकती है। टायर का क्लोज़अप, परफेक्ट साउंड इफेक्ट्स — शुरुआत से ही थ्रिल भर देता है।
छह महीने बाद, अनिल एकदम साफ-सुथरा, सज्जन किस्म का लगता है। फिर वो सीन आता है — जब एक ग्राहक उसके चेहरे पर धुआँ फूंकता है, और अनिल उसे गोली मार देता है। मालिक हँसता है, और दोनों 'टॉम एंड जेरी' शो खत्म होने के बाद ऐंटी-स्मोकिंग ऐड देखते हैं — वो सीन भी कमाल का था।

तीसरी कहानी: एक लड़की जो वरुण की तरह "ॐ" लिखती है। दयाशंकर का इस बात को लेकर डरना।

दयाशंकर पांडे जी का क्लासरूम सीन याद है, जहाँ रोज़ बच्चों को दीवार की तरफ मुँह करके खड़ा कर दिया जाता है। वो सीन मेरे चाचा का फ़ेवरेट था — शायद इसलिए, क्योंकि उसमें उन्हें अपना अक्स दिखाई देता था।
और फिर वही दयाशंकर जी का रात में दीवार फांदकर घर में घुस जाना… फिर उनका फूट-फूटकर रोना — वाकई, हँसी रोकना मुश्किल हो जाता था!

चौथी कहानी: गायत्री सेब खरीदकर लौट रही होती है, तभी सेब और भी सस्ते हो जाते हैं। इस बात पर सेब वाले का गायत्री को जवाब।

"इस कहानी को देखते हुए सेव खाने का मन होने लगता है… शायद इसलिए कि फिल्म में दिखाए गए सेव बड़े ही ताज़ा लगते हैं… या फिर कहें — बड़े ही खस्ता!" 😄

पाँचवीं कहानी: कब्रिस्तान पर खड़ा शख्स, जिसे अमर लिफ्ट देता है। उन दोनों के बीच की बातचीत।

Zee Cinema पर पहले ये फिल्म आए दिन आती रहती थी, लेकिन वो सीन जिसमें अमर चश्मा उतारता है और उसकी आँखें नहीं होतीं — उसे टीवी वर्जन में हटा दिया गया था।

छठी कहानी: पुरब, "स्टॉप" बोलकर लोगों को रोक सकने की शक्ति हासिल कर लेता है, और फिर आत्मविश्वास आसमान पर होता है।

और जब पुरब खुद को फ्रीज़ कर देता है, और उसे अस्पताल ले जाया जाता है — वो सीन भी बड़ा फनी था।

फिल्म का अंत: सातों दोस्त खुद को अस्पताल कर्मियों द्वारा एम्बुलेंस में ले जाते हुए देखते हैं — वह सीन फिल्म का सबसे डरावना होता है।

अब जब मैंने इंटरनेट पर इस फिल्म के रिव्यू पढ़े — ज़्यादातर निगेटिव थे।

तब समझ में आया — कई समीक्षक फिल्म की गहराई नहीं, सिर्फ उसकी ‘रेटिंग’ देखते हैं।
अगर उन्हें पता होता कि ये एक कल्ट फिल्म है — वो फिल्म जो वक्त के साथ अपने दर्शकों के दिल में जगह बनाती है — तो शायद वो भी इसे समझने की कोशिश करते।

शायद इसलिए ये फिल्म पहले नहीं चली — क्योंकि लोगों को उससे वही डर, वही म्यूज़िक चाहिए था, जो इससे पहले की हॉरर फिल्मों में था।

लेकिन ये बहुत ही एक्सपेरिमेंटल और अलग तरह की फिल्म थी।
न इसमें सदाबहार संगीत था, न पारंपरिक डर।
इसकी सोच और प्रस्तुति अलग थी — और शायद शुरुआत में लोग इसे समझ ही नहीं पाए।

और अगर मैंने इसे पहले कभी नहीं देखा होता…
तो शायद मैं भी सिर्फ रेटिंग देखकर इसे स्किप कर देता।

लेकिन जब ‘डरना मना है’ रिलीज़ हुई थी…

मेरे चाचा का लड़का मेरे पास ऐसे आया, जैसे कोई जासूसी मिशन से लौटा हो!
चेहरे पर चमक, आवाज़ में जोश —

“यार… अब तक की सबसे ज़बरदस्त फिल्म देखी है!”

और फिर उसने पूरी फिल्म ऐसे सुनाई — जैसे उसमें एक्टिंग भी वही कर रहा हो, डायलॉग भी वही बोल रहा हो, और बैकग्राउंड म्यूज़िक भी वही गुनगुना रहा हो।

हमने इस फिल्म की कहानियाँ दोस्तों के साथ बार-बार डिस्कस कीं।

और फिर वो सेब वाली कहानी…

गायत्री सेब लेकर लौट रही होती है। अचानक फिर वही आवाज़ —

“दस रुपये किलो… दस रुपये किलो… दस रुपये किलो…”

गायत्री पलटकर हैरानी से पूछती है:
“अभी तो आपने बीस रुपये किलो में दिए थे?”

और फिर — राजपाल यादव का वो ऐतिहासिक जवाब, जो हम आज भी मस्ती में दोहराते हैं:
“अपनी मर्ज़ी का मालिक हूँ, समझी?”

अब सोचिए, जो एहसास आपने इस लेख को पढ़कर पाया, वह क्या किसी रिव्यू से मिल सकता था?

तो अगली बार जब कोई कहे — "पहले रिव्यू देख लो…"
तब डायलॉग याद रखना:
"अपनी मर्ज़ी का मालिक हूँ, समझी?"

माधवेंद्र भवन की भयावह दास्तान

माधवेंद्र भवन की भयावह दास्तान

Ghibli-style illustration inspired by Shabbir Khan’s life and writings

जयपुर, रॉयल्टी की राजधानी... महलों और किलों की धरती। उन्हीं महलों में से एक है माधवेंद्र भवन — एक अद्भुत रचना जो नाहरगढ़ किले के भीतर स्थित है।

इस महल को राजा सवाई माधो सिंह ने अपनी नौ रानियों के लिए बनवाया था। महल का डिज़ाइन कुछ इस तरह से तैयार किया गया था कि गलियों का जाल और कमरे इतने पेचीदा तरीके से जुड़े थे कि एक बार भीतर प्रवेश कर लेने के बाद बाहर निकलना आसान नहीं होता था। यह वास्तव में एक भूल भुलैया थी, जिसमें कोई भी रास्ता सीधे तौर पर नज़र नहीं आता था।

इन सब के बीच में एक मुख्य गलियारा था — जो सभी कमरों को जोड़ता था, लेकिन वह रास्ता भी सीधा नहीं दिखता था। यह महल न केवल अपनी भव्यता के लिए बल्कि इतिहास और रहस्य के लिए भी जाना जाता है।

कहानी की शुरुआत

यह बात उस समय की है जब पापा-मम्मी, चाचा-चाची जयपुर घूमने आए थे। उनके साथ दादा-दादी और एक पड़ोसी परिवार भी था।

चार दिन के इस ट्रिप में वे स्टेशन के पास की सराय में ठहरे थे — वही खाना बनाना, वही सोना—हर ज़रूरी आवश्यकता का वहाँ पूरा बंदोबस्त था। वो दिन बहुत सुहाने थे, क्योंकि तब यात्रा से जुड़े कोई विशेष नियम या पाबंदियाँ नहीं थीं। दिन भर घूमना, खाना-पीना, मस्ती — सब कुछ बेहद सहजता से चलता रहा।

और आज उन सबका आख़िरी दिन था जयपुर में। कल उन्हें वापस अपने शहर डबरा लौटना था।

जयपुर की हवाओं में उस दिन एक अलग ही सिहरन थी। गुलाबी शहर की धड़कनों के बीच बसा था एक किला — नाहरगढ़। और उसके गर्भ में छिपा था एक अद्भुत, रहस्यमय महल — माधवेंद्र भवन।

उसी दिन, जब बाकी लोग कहीं और घूमने निकले थे, पापा अपने शौक की डोर थामे अकेले उस राजसी रहस्य की सैर पर निकल पड़े। उन्हें राजा–महाराजाओं के किले, हवेलियाँ और पुरानी दीवारों में दबी कहानियाँ बेहद आकर्षित करती थीं — और माधवेंद्र भवन उनके लिए मानो एक ख़ज़ाना था।

पापा ने किसी से ज़्यादा बात नहीं की। बस इतना कहा, “मैं थोड़ा महल देख आऊँ।” कोई नहीं जानता था कि यह ‘थोड़ा’ देखना कैसे एक डरावनी रात में बदल जाएगा।

महल का प्रवेश

महल का मुख्य प्रवेश द्वार बेहद भारी था — जैसे सदियों पुरानी साँसें उसमें अब भी अटकी हों। जब पापा ने भीतर कदम रखा, तो चारों ओर गूँजती खामोशी ने उनका स्वागत किया।

ऊँची दीवारें, पत्थरों में छिपी कहानियाँ, और वो संकरी गलियाँ — जिनमें जाने कितनों ने रास्ता खोया होगा। पापा हर मोड़ को ध्यान से देख रहे थे। लेकिन वे जानते थे कि यह महल साधारण नहीं है। इसीलिए वे अपने पीछे कुछ निशान छोड़ते जा रहे थे।

भूल भुलैया की शुरुआत

महल के भीतर कई रास्ते और अनेक दरवाज़े थे — लेकिन बाहर निकलने का रास्ता सिर्फ एक ही था। बाकी सारे रास्ते सिर्फ भ्रम पैदा करते थे।

पापा धीरे–धीरे महल के ऊपरी हिस्से तक पहुँच गए। उन्हें पता था कि अब इस किले और इसमें बसे महल को छोड़ने का समय आ गया है। वहाँ कुछ लड़के फोटो खींच रहे थे, तो पापा ने सोचा — "ये भी तो रुके हुए हैं", इसलिए वे भी वहीं रुक गए। उन्होंने तय किया कि जैसे ही वे लड़के नीचे उतरेंगे, वे भी उनके पीछे-पीछे चल देंगे।

पर यहीं से कहानी ने मोड़ ले लिया...

पापा महल की बनावट में इतने खो गए कि उन्हें यह भी पता नहीं चला कि लड़के कब वहाँ से चले गए। जब उन्हें इसका एहसास हुआ, तो वे दौड़ते हुए नीचे भागे, ताकि देख सकें कि वे किस रास्ते से निकल रहे थे। पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी।

कुछ क्षणों के लिए उन्हें उन लड़कों के कदमों की आहट और एक झलक महसूस हुई — और फिर चारों ओर सन्नाटा छा गया।

वे भूल चुके थे कि किस दरवाज़े से नीचे उतरना था। पापा ने पहला द्वार चुना — गलियारा लंबा था, और साया-सा सन्नाटा उसमें पसरा हुआ था। उन्होंने पहले छोड़े गए निशान ढूँढ़ने की कोशिश की, लेकिन हर मोड़ उन्हें एक जैसा ही लगने लगा। धीरे–धीरे उन्हें महसूस हुआ कि वे फिर उसी जगह लौट आए हैं।

फिर उन्होंने दूसरा दरवाज़ा चुना, फिर तीसरा... लेकिन हर बार वही नतीजा। अब उन्होंने हर मोड़, हर दरवाज़े पर निशान बनाना शुरू कर दिया।

लेकिन जैसे ही वे किसी गलियारे में दोबारा जाते, उन्हें उनके ही बनाए हुए पुराने निशान दिखते। यानी वे फिर से उसी जगह लौट आए थे।

हर रास्ता उन्हें उसी स्थान पर ले आता था — जैसे कोई अदृश्य शक्ति उन्हें बाहर निकलने से रोक रही हो।

पापा ने बताया — "नाहरगढ़ किले के नियमों के अनुसार, मुझे वहाँ से शाम होने से पहले निकल जाना था। मैं कई दरवाज़ों से होकर गुज़रा। हर बार लगता कि अब शायद बाहर निकल जाऊँगा, लेकिन हर बार मैं वहीं लौट आता था।"

हिम्मत की आख़िरी डोर

उनकी साँसें तेज हो चुकी थीं, कपड़े पसीने से तरबतर हो गए थे, और दिल डर से कांप रहा था। लेकिन वे हार मानने वालों में से नहीं थे।

उन्होंने बार–बार नए रास्ते आज़माए, हर दिशा में प्रयास किया — लेकिन महल जैसे उन्हें वापस अपनी गिरफ्त में खींच लाता।

उन्होंने बताया — "मैं हर जगह कुछ निशान छोड़ रहा था। 12 कमरों के इर्द-गिर्द फैले गलियारों को खंगालना तो दूर, मैं तो कुछ ही गलियारों में बुरी तरह उलझ गया था।"

शाम का सूरज ढल चुका था और महल अब अंधेरे में डूबने लगा था। झींगुरों की आवाज़ें गूंजने लगीं और हवा में एक अजीब-सी नमी भर गई। चमगादड़ उड़ते हुए दिखाई देने लगे — उनके पंखों की सरसराहट दिल की धड़कनों से टकरा रही थी।

पापा के पास कोई टॉर्च नहीं थी — बस दिल में एक उम्मीद थी। उन्होंने दीवारों को छूकर चलना शुरू किया, हर मोड़ और उभार को महसूस करते हुए रास्ता टटोलने लगे।

घंटों बीत गए थे। अब उन्हें यकीन होने लगा था कि शायद आज की रात इसी भूलभुलैया में गुज़रेगी।

उन्होंने बताया — "एक पल तो ऐसा भी आया जब मैं रो पड़ा। उस समय मेरी उम्र सिर्फ 21 या 22 साल रही होगी। मैं वहाँ घंटों से भटक रहा था। मुझे यह चिंता सता रही थी कि समय कुछ ज़्यादा हो गया है और परिवार के सदस्य बेसब्री से मेरा इंतज़ार कर रहे होंगे।"

रात की गहराई और उम्मीद की रौशनी

रात का काफ़ी समय बीत चुका था। पापा अब पूरी तरह थक चुके थे। डर और थकान उन्हें हार मानने पर मजबूर कर रही थी।

तभी दूर से एक आवाज़ आई — “कोई है?” पापा चौंक उठे। यह किसी आदमी की आवाज़ थी। उन्होंने तुरंत जवाब दिया — “चलो… चलो…”

यह उनका पुराना तरीका था किसी को पुकारने का।

दो सुरक्षाकर्मी टॉर्च के साथ गलियारों में गश्त लगा रहे थे। एक ने आवाज़ सुनी और कहा, “उधर कोई है!” जब टॉर्च की रोशनी पापा पर पड़ी, तो जैसे अंधेरे में साँसें वापस लौट आईं।

दोनों गार्ड्स उनके पास आए और उन्हें उस एकमात्र द्वार से बाहर ले गए, जो सही मायनों में बाहर की ओर खुलता था।

और इस तरह...

वो महल, जो राजा की नौ रानियों की आरामगाह था, एक रात के लिए एक आम इंसान के लिए एक डरावना पिंजरा बन गया।

एक रात जब घर में लाइट नहीं थी, तो हमेशा की तरह हम सभी घर के बाहर बैठे हुए थे। उसी वक्त पापा ने वो पुराना किस्सा सुनाया। उनकी बातें सुनकर हम सब रोमांच से भर गए।

लेकिन असली मोड़ तब आया जब चाचा ने धीमे स्वर में कहा —
“मुझे लगता है… शायद वो गार्ड्स मेरी वजह से आए थे।”

हम सब चौंक गए।
पापा ने पूछा, “तुम्हारी वजह से?”

चाचा बोले — “जब तू देर तक नहीं लौटा, मुझे यकीन था कि तू उसी महल में कहीं भटक रहा होगा। मैं बिना देर किए पैदल ही वहाँ पहुँच गया। बाहर खड़े अधिकारियों से कहा — ‘मेरा भाई अंदर गया है… और अब तक लौटा नहीं।’ शायद उन्होंने मेरी आवाज़ में छुपी बेचैनी को महसूस कर लिया।”

जब पापा गार्ड्स की मदद से महल के चंगुल से निकलकर किले से बाहर आते हुए स्टेशन की सराय पहुँचे, तब उन्हें — यानी चाचा को — ज़्यादा कुछ पता नहीं चल पाया था।

कई सालों बाद, जब यह किस्सा उनके कानों तक पहुँचा — तभी जाकर इस बात का असली खुलासा हो पाया।

उस पल पापा समझ पाए कि उस डरावनी रात में जो रोशनी आई थी — वो सिर्फ टॉर्च की नहीं, एक भाई के भरोसे की थी।

माधवेंद्र भवन की वो रात आज भी हमारे परिवार में एक किस्सा बनकर सुनाई जाती है — एक भूलभुलैया, एक रात, एक निशान, और एक ‘चलो...’ जो पापा की आवाज़ में आज भी गूंजता है।


समाप्त